Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 276
________________ २६२ कर्मवाद कषाय 7. गप्ति केवलज्ञान, केवली क्रियावाद जैन दर्शन और संस्कृति करण-वीर्य या क्रियात्मक शक्ति कहा जाता है। करण-वीर्य में जीव और पुद्गल की मिली-जुली शक्ति है। देखें, लब्धि-वीर्य । जो आत्मा द्वारा किए गए शुभ-अशुभ कर्मों के फलस्वरूप आत्मा के साथ बंधने वाले कर्म नामक पुद्गल विशेष का वास्तविक अस्तित्व स्वीकार करे, वह सिद्धांत । क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय हैं। जीव में कषाय के ‘परिणाम' मोह-कर्म के उदय के कारण निरन्तर बने रहते हैं। कषाय 'आस्रव' है। शरीर की क्रियाओं का संयम करना काय-गुप्ति है। जैसे-चलना, हिलना-डुलना आदि का निरोध कर स्थिर रहना। सम्पूर्ण निगवरण ज्ञान यानी सर्वज्ञता 'केवल ज्ञान' है और केवल-ज्ञान प्राप्त व्यक्ति केवली कहलाते हैं। जो मोक्ष के लिए प्ररूपित साधना-पद्धति में विश्वास करे, वह सिद्धांत। प्राचीन युग में क्रियावाद आस्तिकवाद का ही पर्यायवाची था। चार घात्य कर्मों के विपाक-उदय के अभाव को क्षयोपशम कहते हैं। क्षयोपशम में प्रदेशोदय होता है, विपाकोदय का अभाव होता है या मन्द विपाकोदय ही होता है। जो कर्म उदय-आवलिका में प्रविष्ट हो चुके हैं उनका क्षय होता है और जो उदय में नहीं आए हैं उनका विपाक-उदय न होना अर्थात् उपशम होना। यह उपशम क्षय के द्वारा उपलक्षित है, अतएव क्षयोपशम कहलाता है। जो मुनि राग-द्वेष आदि दोषों को क्षीण कर चुके हैं यानी वीतराग बन चुके हैं, वे वैदिक परम्परा में क्षीणदोषयति कहलाते हैं। जीव संसार में विभिन्न पर्यायों (अवस्थाओं) में जन्म ग्रहण करता रहता है। कभी वह मनुष्य बनता है, कभी पशु आदि। इन अवस्थाओं को मुख्य रूप से चार प्रकार में बाँटा गया है, जिसे 'गति' कहते हैं। क्षयोपशम क्षीणदोषयति गति

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