Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 279
________________ परिशिष्ट धर्म-द्रव्य (धर्मास्तिकाय) ध्रौव्य नय नास्तिक २६५ लोक व्यापी गति का अनिवार्य माध्यम जो अभौतिक और अचेतन (अजीव) द्रव्य है। किसी भी प्रकार की गति में यह अनिवार्यतया सहायक होता है। छह मूलभूत द्रव्यों में से एक है। शाश्वत । अनादिकालीन पारिणामिक स्वभाव का न उत्पाद होता है और न व्यय किन्तु वह स्थिर रहता है। इसलिए उसे ध्रुव कहा जाता है। तथा इस ध्रुव का भाव या कर्म ध्रौव्य कहलाता है। जैसे मिट्टी के पिण्ड और घटादि अवस्थाओं में मिट्टी का अन्वय बना रहता है। देखें, उत्पाद और व्यय । अनन्त धर्मात्मक होने से वस्तु जटिल है। उसका सम्पूर्ण ज्ञान, “प्रमाण" और अंश “नय” कहलाता है। नय सात हैं—नैगम, संग्रह, ऋजुसूत्र, समभिरूढ़, निश्चय, व्यवहार, एवं भूत। जो आस्तिक नहीं है, वह नास्तिक है। देखें आस्तिक। धर्म यानि गुण या स्वभाव। जो "नास्तित्व" सूचक गुण है, वह नास्तिक-धर्म है। देखें, अस्ति-धर्म । अग्नि में “शीतता” नास्ति-धर्म है। वे कर्म जो किसी भी पुरुषार्थ के द्वारा परिवर्तित नहीं हो सकते। उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, आदि किसी भी "करण” का प्रयोग जिसमें संभव नहीं है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा अनन्तकाय वनस्पति के जीव निगोद कहलाते हैं। निगोद के जीव एक मुहूर्त ४८ मिनट में) ६५५३६ भव (जन्म-मृत्यु) कर लेते हैं। यह जीव की न्यूनतम विकसित अवस्था है। बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित आर्य-सत्यों में चौथा। कर्मों में आंशिक विच्छेद के कारण होने वाली आत्मा की निर्मल अवस्था। उपचार से निर्जरा में निमित्तभूत क्रिया-तपस्या को भी निर्जरा कहा जाता. नास्ति-धर्म निकाचित निगोद निरोध निर्जरा है। परम अस्तिवादी परम आस्तिक। आत्मा और मोक्ष की परम वास्तविकता को स्वीकार करने वाले। .

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