Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 264
________________ २५०. जैन दर्शन और संस्कृति साधना करने वाले सब व्यक्तियों का अध्यवसाय समान नहीं होता। उनकी क्षमता भी समान नहीं होती। गति में तारतम्य होता है, किन्तु लक्ष्य समान होता है। कौन कितना आगे बढ़ सके, यह उस पर निर्भर है। पहले ही हम उसे अवरोध-पट्ट दिखा दें कि इससे आगे नहीं जा सकते, तो उसके चरण प्रारम्भ में ही ठिठक जाते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने कलिकाल के निमित्त से निर्मित किए गए अवरोधों को तोड़ने के लिए महत्त्वपूर्ण चिन्तन प्रस्तुत किया। उन्होंने लिखा कि-"सुषमाकाल में साधक लम्बी तपस्या के बाद फल प्राप्त करते थे। यह कलिकाल ही ऐसा है, जिसमें साधक अल्पकालीन तपस्या से ही फल प्राप्त कर लेता है। फिर कलिकाल क्या बुरा है? हमें कृतयुग से क्या प्रयोजन? . “लोग कहते हैं कि कलिकाल में लोग बहुत उच्छृखल और दुष्ट होते हैं। क्या कृतयुग में ऐसे लोग नहीं थे? यह सच है कि उस युग में भी ऐसे लोग थे। फिर हम कलिकाल पर व्यर्थ ही क्यों कुपित होते हैं?" अध्यात्म का उन्मेष भगवान् महावीर का दर्शन आत्मा का दर्शन है। उसके आदि, मध्य और अंत में सर्वत्र आत्मा ही आत्मा है। उसकी गहराइयों में जाने का प्रयत्न अध्यात्म है। इस बिन्दु को दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द (विक्रम की प्रथम शताब्दी) ने सर्वाधिक विकसित किया। वे जैन परम्परा में अध्यात्म के मुख्य प्रवक्ता थे। भगवान् महावीर ने मोक्ष के चार मार्ग बतलाए—ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । इनकी व्याख्या अनेकों आचार्यों ने की। वे सब व्याख्याएं व्यवहारनय पर आश्रित हैं। व्यवहारनय स्थूल और बुद्धिगम्य दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। निश्वयनय का दृष्टिकोण सूक्ष्म और आत्मगम्य है। अध्यात्म का प्रवक्ता निश्चयनय का आलम्बन लेकर चलता है। आचार्य कुन्दकुन्द की अनेक व्याख्याएं और स्थापनाएं निश्चयनय पर अवलम्बित हैं। उन्होंने निश्चयनय के आधार पर कहा—“आत्मा को जानना ही सम्यक् ज्ञान है, उसे देखना ही सम्यक् दर्शन है और उसमें रमण करना ही सम्यक् चारित्र है।" उन्होंने व्यवहारनय को अस्वीकार नहीं किया और सामाजिक जीवन में उसको अस्वीकार किया भी नहीं जा सकता। तत्त्व के गहन पर्यायों तक हर आदमी नहीं पहुँच सकता। उसकी पहुँच तत्व के कुछेक स्थूल पर्यायों तक होती है। उसे वास्तविक सत्य तक ले जाने के लिए स्थूल सत्य का आलम्बन लेना आवश्यक होता है। ___ व्यवहार की भूमिका पर जीने वाले धार्मिक लोग स्वर्ग के प्रलोभन और नर्क के भय से ही धर्म की बात सोचते हैं। उनकी दृष्टि पुण्य और पाप तक

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