Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 263
________________ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग काल हेतुक अवरोध और उनके फलित भारतीय चिन्तन का यह व्यापक रूप रहा है कि पुरातन काल सतयुग था, वर्तमान युग कलिकाल है । इसमें प्रकृष्टता निकृष्टता की ओर चली जाती है। इस चिन्तन के आधार पर भारतीय जनता का विश्वास दृढ़ हो गया है कि प्राचीन काल में जो अच्छाइयाँ, क्षमताएं और विशेषताएं थीं, वे इस कलिकाल में समाप्त हो चुकी हैं और रही-सही समाप्त होती जा रही हैं - इस चिन्तनधारा ने एक विचित्र प्रकार की हीन भावना उत्पन्न कर दी । लगभग पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व कुछ जैन मुनि यह मानने लगे थे कि वर्तमान में धर्म नहीं है, व्रत नहीं है और चरित्र विच्छिन्न हो गया है। वर्तमान में जो जैन शासन चल रहा है वह ज्ञान और दर्शन के आधार पर चल रहा है। किन्तु आज कोई साधु नहीं है । चिन्तन की इस धारा ने विकास का द्वार अवरुद्ध कर दिया। मुनिजन यह मानकर चलने लगे कि इस दुषमाकाल में विशिष्ट साधना और विशिष्ट उपलब्धि नहीं हो सकती । इस धारणा का प्रभाव भी हुआ । साधना के पथ में अभिनव उन्मेष लाने की मनोवृत्ति शिथिल हो गई । जब यह मान लिया जाता है कि आज विशिष्टता की उपलब्धि नहीं हो सकती, फिर उसके लिए प्रयत्न करने की स्फुरणा भी नहीं रहती । कुछ मनीषी मुनियों का ध्यान इस हीनभावना की मनोवृत्ति और उसके फलितों पर गया। उन्होंने इसका प्रतिवाद किया । भाष्यकार संघदासगणी ने कहा—“जो मुनि यह कहते हैं कि वर्तमान में साधुत्व नहीं है, उन्हें श्रमण-संघ से बहिष्कृत कर देना चाहिए।" आचार्य रामसेन ने इसका सशक्त समर्थन किया कि वर्तमान में ध्यान हो सकता है, उसका विच्छेद नहीं हुआ है । २४९ कुछ विच्छित्तियों के बारे में किसी आचार्य ने कुछ नहीं कहा। यह बहुत ही विमर्शनीय है । विच्छेदों की चर्चा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने की है । तुलनात्मक दृष्टि से श्वेताम्बर आचार्यों ने अधिक की है । दिगम्बर- परम्परा में ध्यान, कायोत्सर्ग और प्रतिमा के अभ्यास की परम्परा दीर्घकाल तक चली। दिगम्बर आचार्यों ने योग विषयक ग्रन्थ रचे । श्वेताम्बर परम्परा में ध्यान का अभ्यास सुदूर अतीत में ही कम हो गया था । श्वेताम्बर आचार्यों में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, अचार्य हेमचन्द्र उपाध्याय यशोविजयजी आदि कुछेक विद्वान् ही योग ग्रन्थों के निर्माता हुए हैं। आचार्यश्री तुलसी ने योग पर 'मनोनुशासनम्' नाम का ग्रन्थ लिखा । उसके निर्माण की अवधि में उन्होंने कहा—“यौगिक उपलब्धियों के विच्छेद की बात साधक के मन में पहले से ही न बिठाई जाती, तो आज तक जैन परम्परा में योग का अधिक विकास हुआ होता ।"

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