Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 206
________________ १९२ जैन दर्शन और संस्कृति महावीर ने जो किया, वह मुक्ति के लिए किया। उन्होंने जो कहा, वह मुक्ति के लिए कहा। जनतन्त्र भी व्यावहारिक मुक्ति का प्रयोग है, इसलिए महावीर की करनी और कथनी दोनों में पथदर्शन की क्षमता है। मनुष्य की ईश्वरीय सत्ता का संगान भगवान् महावीर का जन्म उस युग में हुआ, जिसमें मनुष्य भाग्य के झूले में झूल रहा था। भाग्य ईश्वरीय सत्ता का प्रतिनिधि तत्त्व है। जब मनुष्य ईश्वरीय सत्ता का यंत्र बनकर जीता है, तब उसके जीवन-रथ का सारथी भाग्य ही होता है। भगवान् महावीर भाग्यवादी नहीं थे, इसका सहज फलित यह है वे चालू अर्थ में ईश्वरवादी नहीं थे। वे गणतन्त्र के संस्कारों में पले-पुसे थे। वे किसी भी महासत्ता को अपनी सम्पूर्ण स्वतन्त्रता सौंप देने के पक्ष में नहीं थे। उनकी अहिंसा की व्याख्या में अधिनायकवादी मनोवृत्ति के लिए कोई अवकाश नहीं था। भगवान् ने कहा—“दूसरों पर शासन करना हिंसा है, इसलिए किसी की स्वतन्त्रता का अपहरण मत करो।” जहाँ स्वतन्त्रता का अपहरण हो वहाँ ईश्वरीय तत्त्व नहीं हो सकता। भगवान् महावीर आत्मवादी थे। वे ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिपादन करते थे, किन्तु मनुष्य से भिन्न उसकी सत्ता स्वीकार नहीं करते थे। मनुष्य ईश्वर की सृष्टि है, ईश्वर उसका सर्जक है, यह कृति और कर्ता का सिद्धान्त उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उनकी स्थापना में आत्मा की तीन कक्षाएं हैं : १. बहिर्-आत्मा—यह पहली कक्षा है। इसमें देह ही सब कुछ होती है। उसमें विराजमान चिन्मय आत्मा का अस्तित्व ज्ञात नहीं होता। २. अन्तर्-आत्मा—यह दूसरी कक्षा है। इस कक्षा में सत्य उद्घाटित हो जाता है कि जैसे दूध में नवनीत व्याप्त होता है, वैसे ही देह में चिन्मय सत्ता व्याप्त है। ३. परम-आत्मा-यह तीसरी कक्षा है। इसमें चिन्मय सत्ता पर आई हुई देह-रूपी भस्म दूर होने लग जाती है। आत्मा परमात्मा के रूप में प्रकट हो जाती आत्मा और परमात्मा मानवीय पुरुषार्थ की प्रक्रिया से वियुक्त नहीं है। भगवान् महावीर के दर्शन में परमात्मा अस्वीकार नहीं है, उसकी विश्व-सृजनसत्ता का अस्वीकार है। .. भगवान् महावीर ने ईश्वरोपासना के स्थान में श्रमणोपासना का प्रवर्तन किया। ईश्वर परोक्षु शक्ति है और वह अगम्य है। उसके प्रति जितना आकर्षण

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