Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 251
________________ जैन धर्म का प्रसार २३७ में भी मिलता है। महावंश के अनुसार ई. पू. ४३० में जब अनुराधापुर बसा, तब जैन श्रावक वहाँ विद्यमान थे। वहाँ अनुराधापुर के राजा पांडुकाभय ने ज्योतिय निग्गंठ के लिए घर बनवाया। उसी स्थान पर गिरि नामक निग्गंठ रहते थे। राजा पांडुकाभय ने कुम्भण्ड निग्गंठ के लिए भी एक देवालय बनवाया था। जैन श्रमण भी सुदूर देशों तक विहार करते थे। ई. पू. २५ में पांड्य राजा ने अगस्टस् सीजर के दरबार में दूत भेजे थे। उनके साथ श्रमण भी यूनान गए थे। ईसा से पूर्व ईराक शाम और फिलिस्तीन में जैन-मुनि और बौद्ध भिक्षु सैकड़ों की संख्या में चारों ओर फैले हुए थे। पश्चिमी एशिया, मिश्र, यूनान और इथोपिया के पहाड़ों और जंगलों में उन दिनों अगणित भारतीय साधु रहते थे, जो अपने त्याग और अपनी विद्या के लिए प्रसिद्ध थे। ये साधु वस्त्रों तक का परित्याग किए हुए थे। यूनानी लेखक मिस्र, एबीसीनिया, इथोपिया में दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं। आद्र देश का राजकुमार आद्र भगवान् महावीर के संघ में प्रव्रजित हुआ था। अरबिस्तान के दक्षिण में ‘एडन' बन्दर वाले प्रदेश को 'आद्र-देश' कहा जाता था। कुछ विद्वान् इटली के एड्रियाटिक समुद्र के किनारे वाले प्रदेश को आद्र-देश मानते हैं। इब्न-अन नजीम के अनुसार अरबों के शासन-काल में यहिया-इब्नखालिद-बरमकी ने खलीफा के दरबार और भारत के साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित किया। उसने बड़े अध्यवसाय और आदर के साथ भारत के हिन्दू, बौद्ध और जैन विद्वानों को आमंत्रित किया। __ इस प्रकार मध्य एशिया में जैन-धर्म या श्रमण-संस्कृति का काफी प्रभाव रहा था। उससे वहाँ के धर्म प्रभावित हुए थे। वानक्रेमर के अनुसार मध्यपूर्व में प्रचलित 'समानिया' सम्प्रदाय 'श्रमण' शब्द का अपभ्रंश है। श्री विश्वम्भरनाथ पांडे ने लिखा है-"इन साधओं के त्याग का प्रभाव यहूदी धर्मावलम्बियों पर विशेष रूप से पड़ा। इन आदर्शों का पालन करने वालों की, यहूदियों में एक खास जमात बन गई, जो ‘ऐस्मिनी' कहलाती थी। इन लोगों ने यहूदी-धर्म के कर्मकाण्डों का पालन त्याग दिया। ये बस्ती से दूर जंगलों में या पहाड़ों पर कुटी बनाकर रहते थे। जैन-मुनियों की तरह अहिंसा को अपना खास धर्म मानते थे। मांस खाने से उन्हें बेहद परहेज था। वे कठोर और संयमी जीवन व्यतीत. करते थे। पैसा या धन को छूने तक से इन्कार करते थे। रोगियों और दुर्बलों की सहायता को दिनचर्या का आवश्यक अंग मानते थे। प्रेम और

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