Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 211
________________ भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएं । १९७ ४. प्रतिमाधर—यह चौथी कक्षा है। इसमें धर्म का विशेष अभ्यास होता है। मुनि के लिए निम्न दो कक्षाएं हैं १. संघवासी मुनि—यह पहली कक्षा है। इसमें अहिंसाचरण की प्रधानता है, तपस्या की प्रधानता नहीं है। २. एकलविहारी मुनि-यह दूसरी कक्षा है। इसमें अहिंसाचरण के साथ-साथ तपस्या भी प्रधान होती है। इन कक्षाओं में मुनि के लिए दूसरी (एकल विहारी) कक्षा और गृहवासी के लिए चौथी (प्रतिमाधर) कक्षा में कुछ कठोर साधना का अभ्यास होता है, शेष कक्षाओं की साधना का मार्ग ऋज है। भगवान् महावीर की साधना-पद्धति में मृदु, मध्य और अधिक तीनों मात्राओं का समन्वय है। मनुष्य भी मन्द, मध्य और प्राज्ञ-तीन कोटि के होते हैं। इन तीनों कोटियों को एक कोटि में रखकर धर्म की व्याख्या करने की अपेक्षा विभिन्न कोटि के लोगों के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों से धर्म की व्याख्या करना अधिक मनोवैज्ञानिक है। संप्रदायविहीन धर्म एक व्यक्ति ने आचार्य श्री तुलसी से पूछा-क्या भगवान् महावीर जैन थे? आचार्यश्री ने कहा—नहीं वे जैन नहीं थे। वे जिन थे, उनको मानने वाले जैन होते हैं। वे जैन न होकर भी, दूसरे शब्दों में अजैन होकर भी, महान् धार्मिक थे। इसका फलित स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति जैन होकर ही धार्मिक हो सकता है ऐसा अनुबन्ध नहीं है। जैन, वैष्णव, शैव, बौद्ध-ये सब नाम धर्म की परम्परा के सूचक हैं। इनकी धर्म के साथ व्याप्ति नहीं है। इसी सत्य की स्वीकृति का नाम असाम्प्रदायिक दृष्टि है। साम्प्रदायिकता एक उन्माद है। उसके आक्रमण का ज्ञान तीन लक्षणों से होता है—१. सम्प्रदाय और मुक्ति का अनुबन्ध-मेरे सम्प्रदाय में आओ, तुम्हारी मुक्ति होगी अन्यथा नहीं होगी। २. प्रशंसा और निन्दा-अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरे सम्प्रदायों की निंदा। ३. ऐकान्तिक आग्रह-दूसरों के दृःिकोण को समझने का प्रयत्न न करना। भगवान् महावीर अहिंसा की गहराई में पहुंच चुके थे। इसलिए उन पर साम्प्रदायिक उन्माद आक्रमण नहीं कर सका। इसे उलटकर भी कहा जा सकता है कि भगवान् महावीर पर साम्प्रदायिक उन्माद का आक्रमण नहीं हुआ, इसलिए वे अहिंसा की गहराई में जा सके। आत्मौपम्य (सभी जीवों को अपनी आत्मा के

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