Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 244
________________ २३० जैन दर्शन और संस्कृति किया। आचार्य सुहस्ती उसके धर्म गुरु थे। लगभग ६० वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हुई। जैन धर्म के उद्धारक के रूप में महाराज संप्रति का नाम प्रसिद्ध है। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने जो काम किया, उससे अधिक सम्प्रति ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए किया। सम्राट् सम्प्रति को “परम-आर्हत्" कहा गया है। उन्होंने अनार्य-देशों में श्रमणों का विहार करवाया था। भगवान् महावीर के काल में बिहार के लिए जो आर्य-क्षेत्र की सीमा थी, वह संप्रति के काल में बहुत विस्तृत हो गई थी। सम्राट् संप्रति को भारत के तीन खण्डों का अधिपति कहा गया है। जयचंद्र विद्यालंकार ने लिखा है—'संप्रति को उज्जैन में जैन आचार्य सुहस्ती ने अपने धर्म की दीक्षा दी। उसके बाद सम्प्रति ने जैन-धर्म के लिए वही काम किया जो अशोक ने बौद्ध धर्म के लिए किया था। चाहे चन्द्रगुप्त के और चाहे संप्रति के समय में जैन-धर्म की बुनियाद तामिल भारत के नए राज्यों में भी जा जमी, इसमें संदेह नहीं। उत्तर-पश्चिम में अनार्य देशों में भी सम्प्रति ने. जैन-प्रचारक भेजे और वहाँ जैन-साधुओं के लिए अनेक विहार स्थापित किए। अशोक और संप्रति दोनों के कार्य से आर्य संस्कृति एक विश्वशक्ति बन गई और आर्यावर्त का प्रभाव भारतवर्ष की सीमाओं के बाहर तक पहुँच गया। अशोक की तरह उसके पुत्र ने भी अनेक इमारतें बनवाईं। राजपूताना की कई जैन-इमारतें उसके समय की कही जाती हैं।” कुछ विद्वानों का अभिमत है कि जो शिलालेख अशोक के नाम से प्रसिद्ध हैं, उनमें से कुछ सम्राट् संप्रति ने लिखवाए थे। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्विद श्री सूर्यनारायण व्यास ने भी यह प्रमाणित किया है कि सम्राट अशोक के नाम के लेख सम्राट् संप्रति के हैं। उड़ीसा का राजा खारवेल भी कट्टर जैन धर्मावलम्बी था। उसका जन्म लगभग ई.पू. १९० में हुआ। पन्द्रह वर्ष की आयु में उन्हें युवराज-पद प्राप्त हुआ। २५ वर्ष की आयु में उनका राज्याभिषेक हुआ। उन्होंने लगभग १३ वर्ष तक राज्य किया। वे कलिंग (उड़ीसा) के समर्थ शासक थे। इनका वंश 'चेति' था। उन्होंने पराक्रम से अनेक देशों को जीतकर अपने राज्य में मिलाया, राज्य प्राप्ति के तेरहवें वर्ष में श्रावक व्रत स्वीकार किए। उन्होंने केवल तेरह वर्ष तक राज्य किया, किन्तु कलिंग का प्रभाव सारे भारत पर व्यापक हो गया, शेष जीवन इन्होंने धर्माराधना में बिताया। इनका इतिहास-प्रसिद्ध हाथीगुम्फा शिलालेख उड़ीसा प्रदेश के पुरी जिले में स्थित भुवनेश्वर से तीन मील दूरी पर उदयगिरि पर्वत पर बने हुए हाथीगुम्पा

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