Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 221
________________ जैन साहित्य : संक्षिप्त परिचय जैन साहित्य आगम और आगमेतर – इन दो भागों में बंटा हुआ है I साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम कहलाता है । · भगवान् की वाणी आगम बन गई। उनके प्रधान शिष्य गौतम आदि ग्यारह गणधरों ने उसे सूत्र - रूप में गूंथा । आगम के दो विभाग हो गए— सूत्रागम और अर्थागम । भगवान् के प्रकीर्ण उपदेश को अर्थागम और उनके आधार पर की गई सूत्र - रचना को सूत्रागम कहा गया। वे आचार्यों के लिए निधि बन गए । इसलिए उनका नाम गणि-पिटक हुआ । उस गुम्फन के मौलिक भाग बारह हुए । इसलिए उसका दूसरा नाम हुआ - द्वादशांगी । स्थविरों ने इसका पल्लवन किया । आगम-सूत्रों की संख्या हजारों तक पहुँच गई। भगवान् के चौदह हजार शिष्य प्रकरणकार (ग्रन्थकार) । उस समय लिखने की परम्परा नहीं थी । सारा वाङ्मय स्मृति पर आधारित था । आगमों का रचना-क्रम बारहवें अंग दृष्टिवाद के पाँच विभाग हैं- परिकर्म, सूत्र, पूर्वानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । पूर्वगत के चौदह विभाग हैं । वे पूर्व कहलाते हैं । उनका परिमाण बहुत ही विशाल है। वे श्रुत या शब्द- ज्ञान के समस्तं विषयों के अक्षय- कोप होते हैं । पूर्वो में सारा श्रुत समा जाता है। पूर्वों की भाषा संस्कृत मानी जाती है, किन्तु साधारण बुद्धि वाले उसे पढ़ नहीं सकते। उनके लिए द्वादशांगी की रचना की' गई। आगम-साहित्य में अध्ययन - परम्परा के तीन क्रम मिलते हैं । कुछ श्रमण चतुर्दशपूर्वी होते थे, कुछ द्वादशांगी के विद्वान् और कुछ सामायिक आदि ग्यारह अंगों के अध्येता । चतुर्दशपूर्वी श्रमणों का अधिक महत्त्व रहा है। उन्हें श्रुत- केवली कहा गया है । जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है । यह प्राकृत का ही एक रूप है । यह मगध के एक भाग में बोली जाती है तथा इसमें मागधी और दूसरी

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