Book Title: Jain Darshan Aur Sanskriti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 238
________________ २२४ . जैन दर्शन और संस्कृति विचारकों के अनुसार परिमित परिग्रह का सिद्धान्त प्रत्यक गृहस्थ के लिए अनिवार्य रूप से आचरणीय था। सम्भवत: भारतीय आकाश में समाजवादी समाज के विचारकों का यह प्रथम उद्घोष था।" .. प्रत्येक आत्मा में अनन्त शक्ति के विकास की क्षमता, आत्मिक समानता, क्षमा, मैत्री, विचारो का अनाग्रह आदि के बीज जैन-धर्म ने ही बोये थे। महात्मा गांधी का निमित्त पा, आज वे केवल भारत के ही नहीं, विश्व की राजनीति के क्षेत्र में पल्लवित हो रहे हैं। कला जैन-परम्परा में कला शब्द बहुत ही व्यापक-अर्थ में व्यवहृत हुआ है। भगवान् ऋषभदेव ने अपने राज्यकाल में पुरुषों के लिए बहत्तर और स्त्रियों के लिए चौसठ कलाओं का निरूपण किया। टीकाकारों ने कला का अर्थ बस्तु-परिज्ञान किया है। इसमें लेख गणित, चित्र, नृत्य, गायन, युद्ध, काव्य, वेशभूषा, स्थापत्य, पाक मनोरंजन आदि अनेक परिज्ञानों का समावेश किया गया है। धर्म भी एक कला है। यह जीवन की सबसे बड़ी कला है। जीवन के सारस्य की अनुभूति करने वाले तपस्वियों ने कहा है-"जो व्यक्ति सब कलाओं में प्रवर धर्म-कला को नहीं जानता, वह बहत्तर कलाओं में कुशल होते हुए भी अकुशल है।" जैन-धर्म का आत्मपक्ष धर्म-कला के उन्नयन में ही संलग्न रहा। बहिरंग-पक्ष सामाजिक होता है। समाज-विचार के साथ-साथ ललित कला का भी विस्तार हुआ। चित्रकला जैन-चित्रकला का श्री गणेश तत्त्व-प्रकाशन से होता है। गुरु अपने शिष्यों को विश्व-व्यवस्था के तत्त्व 'स्थापना' के द्वारा समझाते हैं। स्थापना तदाकार और अतदाकार दोनों प्रकार की होती है। तदाकार स्थापना के दो प्रयोजन हैं-तत्त्व-प्रकाशन और स्मृति । तत्त्व-प्रकाशन-हेतुक स्थापना के आधार पर चित्रकला और स्मृति-हेतुक स्थापना के आधार पर मूर्तिकला का विकास हुआ। ताड़पत्र और पत्तों पर ग्रंथ लिखे गए और उनमें चित्र चित्रित किये गए। विक्रम की दूसरी सहस्राब्दी में हजारों ऐसी प्रतियां लिखी गईं, जो कलात्मक चित्राकृतियों के कारण अमूल्य हैं। ताड़पत्रीय या पत्रीय प्रतियों के पुट्ठों, चातुर्मासिक प्रार्थनाओं, कल्याण-मंदिर, भक्तामर आदि स्तोत्रों के चित्रों को देखे बिना मध्यकालीन चित्रकला का इतिहास अधूरा ही रहता है।

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