________________
-७२
जैन दर्शन और संस्कृति विकास होता है, इसमें डार्विन का विकासवाद और जैन-दृष्टि-दोनों विचार एक रेखा पर हैं किन्तु दोनों की प्रक्रिया भिन्न है। डार्विन के विकासवाद में केवल प्रजातीय विकास के क्रम की समीक्षा की गई है। जैन दर्शन ने व्यक्ति-विकास की संभावनाओं को अभिव्यक्ति दी है। डार्विन ने विकासवाद में व्यक्तिश: जीव के विकास-हास की कोई चर्चा नहीं की है। डार्विन को आत्मा
और कर्म की योग्यता ज्ञात होती तो उनका ध्यान केवल जाति, जो कि बाहरी वस्तु है, के विकास की ओर नहीं जाता। आन्तरिक योग्यता की कमी होने पर एक मनुष्य फिर से उद्भिद् जाति में जा सकता है, यह व्यक्तिगत ह्रास है।
प्राणि-विभाग
गमन-क्षमता के आधार पर जैन दर्शन में प्राणियों के वर्गीकरण विभिन्न दृष्टियों से किए गए हैं। प्राणी दो प्रकार होते हैं—चर या त्रस और अचर या स्थावर। अचर प्राणी पाँच प्रकार के होते हैं—पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय। चर प्राणियों के आठ भेद होते हैं-१. अण्डज, २. पोतज, ३. जरायुज, ४. रसज, ५. संस्वेदज, ६. सम्मूर्च्छिम, ७. उद्भिद्, ८. उपपातज। इनमें अण्डज, पोतज और जरायुज गर्भज कहलाते हैं। रसज, संस्वेदज, सम्मूर्छिम और उद्भिद् ‘सम्मूर्छन' कहलाते हैं।
१. अण्डज-अण्डों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अण्डज कहलाते हैं। जैसे—सांप, मछली, पक्षी-कबूतर, हंस, काक, मोर आदि जन्तु ।। - २. पोतज-जो जीव खुले अंग से उत्पन्न होते हैं, वे पोतज कहलाते हैं। जैसे-हाथी, नकुल, चूहा, बगुला आदि।
३. जरायुजं-जरायुज एक तरह का जाल जैसा रक्त एवं मांस से लथड़ा हुआ आवरण होता है और जन्म के समय वह बच्चे के शरीर पर लिपटा हुआ रहता है। ऐसे जन्म वाले प्राणी जरायुज कहलाते हैं। जैसे—मनुष्य, गाय, भैंस, ऊँट, घोड़ा, मृग, सिंह, रीछ, कुत्ता, बिल्ली आदि ।
४. रसज-मद्य आदि तरल (रस) पदार्थों में जो किण्वन (fermentation) की क्रिया के दौरान कृमि उत्पन्न होते हैं, वे रसज कहलाते हैं।
५. संस्वेदज-स्वेद (पसीने) में उत्पन्न होने वाले संस्वेदज कहलाते हैं। जैसे-जू आदि।
६. सम्मूर्च्छिम-गर्भ-धारण के बिना उपयुक्त सामग्री में रखे गए अंडे आदि से जो उत्पन्न हो जाते हैं, वे सम्मूर्छिम हैं। इनका उत्पत्ति-स्थान नियत नहीं होता। जैसे–चींटी, मक्खी आदि।