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जैन दर्शन और संस्कृति अपेक्षा है । यदि हम इस अवस्था-भेद से उत्पन्न होने वाली अपेक्षा की उपेक्षा कर दें, तो भिन्न मूल्यों का समन्वय नहीं किया जा सकता ।
आम की ऋतु में रुपये के दो सेर आम मिलते हैं । ऋतु बीतने पर सेर आम का मूल्य दो रुपये हो जाता है । कोई भी व्यवहारी एक ही वस्तु के इन विभिन्न मूल्यों के लिए झगड़ा नहीं करता। उसकी सहज बुद्धि में कालभेद की अपेक्षा समाई हुई रहती है ।
कश्मीर में मेवे का जो भाव होता है, वह राजस्थान में नहीं होता। कश्मीर का व्यक्ति राजस्थान में आकर यदि कश्मीर - सुलभ मूल्य में मेवा लेने का आग्रह करे, तो वह बुद्धिमानी नहीं होती। वस्तु एक है, यह अन्वय की दृष्टि से है, किन्तु वस्तु की क्षेत्राश्रित पर्याय एक नहीं है। जिसे आम की आवश्यकता है, वह सीधा आम के पास ही पहुँचता है । उसकी अपेक्षा यही तो है कि आम के अतिरिक्त सब वस्तुओं के अभाव धर्मवाला और आम्र- परमाणु सद्भावी आम उसे मिले । इस सापेक्षदृष्टि के बिना व्यावहारिक समाधान भी नहीं मिलता ।
भगवान् महावीर की अपेक्षा- दृष्टियाँ
अपेक्षा-दृष्टि से ये निर्णय निकलते हैं—
१. वस्तु न नित्य है, न अनित्य है, किन्तु नित्य-अनित्य का समन्वय है 1 २. वस्तु न भिन्न है, न अभिन्न है, किन्तु भेद - अभेद का समन्वय है ।
३, वस्तु न एक है, न अनेक है, किन्तु एक-अनेक का समन्वय 1
वस्तु के विशेष गुण (सहभावी धर्म) का कभी नाश नहीं होता, इसलिए वह नित्य और उसके क्रमभावी धर्म पर्याय बनते-बिगड़ते रहते हैं, इसलिए वह अनित्य है । " वह अनन्त धर्मात्मकं है, इसलिए उसका एक ही क्षण में एक स्वभाव से उत्पाद होता है, दूसरे स्वभाव से विनाश और तीसरे स्वभाव से स्थिति होती है ।" वस्तु में इन विरोधी धर्मों का सहज सामंजस्य है । ये अपेक्षा - दृष्टियाँ वस्तु के विरोधी धर्मों को मिटाने के लिए नहीं हैं। ये उस विरोध को मिटाती हैं, जो तर्कवाद से उद्भूत होता है ।
समन्वय की दिशा
अपेक्षावाद समन्वय की ओर गति है । इसके आधार पर परस्पर विरोधी मालूम पड़ने वाले विचार सरलतापूर्वक सुलझाए जा सकते हैं । मध्ययुगीन दर्शन-प्रणेताओं की गति इस ओर कम रही। यह दुःख का विषय है। जैन दार्शनिक नयवाद के ऋणी होते हुए भी अपेक्षा का खुलकर उपयोग नहीं कर