________________
जन्म-मृत्यु का चक्रव्यूह
१. स्पर्शन - इन्द्रिय-प्राण
२. रसन- इन्द्रिय- प्राण
३. घ्राण - इन्द्रिय- प्राण
. ४. चक्षु इन्द्रिय-प्राण
५. श्रोत्र - इन्द्रिय-प्राण
६. मन:प्राण
७. वचन-प्राण
८. काय प्राण
९. श्वासोच्छ्वास-प्राण
८५
१०. आयुष्य प्राण ।
प्राण-शक्तियाँ सब जीवों में समान नहीं होतीं । फिर भी कम से कम चार तो प्रत्येक प्राणी में होती ही हैं ।
शरीर, श्वास- उच्छ्वास, आयुष्य और स्पर्शन इन्द्रिय- इन जीवन - शक्तियों में जीवन का मौलिक आधार है । प्राण-शक्ति और पर्याप्ति का कार्य-कारण सम्बन्ध है। जीवन-शक्ति को पौद्गलिक शक्ति की अपेक्षा रहती है। जन्म के पहले क्षण में प्राणी कई पौद्गलिक शक्तियों का क्रमिक निर्माण करता है, उसे पर्याप्ति कहते हैं । वे छह हैं—
४. श्वासोच्छ्वास
५. भाषा
१. आहार २. शरीर
३. इन्द्रिय
६. मन
1
इनके द्वारा स्वयोग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन (asslimilation ) और उत्सर्जन होता है। उनकी रचना प्राण-शक्ति के अनुपात पर होती हैं । जिस प्राणी में जितनी प्राण-शक्ति की योग्यता होती है, वह उतनी ही पर्याप्तियों का निर्माण कर सकता है । पर्याप्ति-रचना में प्राणी को अन्तर् - मुहूर्त का समय लगता है । यद्यपि उनकी रचना प्रथम क्षण में ही प्रारम्भ हो जाती हैं, पर आहार - पर्याप्ति के सिवाय शेष सभी की समाप्ति अन्तर्मुहूर्त्त से पहले नहीं होती । स्वयोग्य पर्याप्तियों की परिसमाप्ति न होने तक जीव अपर्याप्त कहलाते हैं और उसके बाद पर्याप्त। उनकी समाप्ति से पूर्व ही जिनकी मृत्यु हो जाती है, वे अपर्याप्त कहलाते हैं । यहाँ इतना - सा जानना आवश्यक है कि आहार, शरीर और इन्द्रिय – इन तीन पर्याप्तियों की पूर्ण रचना किए बिना कोई प्राणी नहीं मरता ।
आहार, चिन्तन, जल्पन आदि सब क्रियाएँ प्राण और पर्याप्ति — इन दोनों के सहयोग से होती हैं। जैसे—बोलने में प्राणी का आत्मीय प्रयत्न होता है, वह प्राण है । उस प्रयत्न के अनुसार जो शक्ति योग्य पुद्गलों का संग्रह करती है, वह भाषा-पर्याप्ति है। आहार - पर्याप्ति और आयुष्य - प्राण, शरीर-पर्याप्ति और काय - प्राण, इन्द्रिय-पर्याप्ति और इन्द्रिय-प्राण, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास प्राण, भाषा-पर्याप्ति और भाषा - प्राण, मनःपर्याप्ति और मनःप्राण - ये परस्पर सापेक्ष हैं ।