Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 13
________________ धन-सपत्ति आदि को न स्वय लेना और न ही दूसरे को, देना अचौर्य-अणुव्रत है। अजितनाथ-द्वितीय तीर्थकर । साकेत नगरी के राजा जितशत्रु और रानी विजयसेना के पुत्र थे। इनकी आयु बहत्तर लाख वर्ष पूर्व थी। शरीर चार सौ पचास धनुष ऊचा और तपाये हुए स्वर्ण के समान कान्ति वाला था। आयु का एक चौथाई भाग बीत जाने पर इन्होने राज्य सभाला और एक पूर्वागतकराज्यकरते रहे। एकदिन कमलवन को खिलते व मुरझाते देख कर विरक्त हो गए और पुत्र को राज्य देकर जिनदीक्षा ले ली। वारह वर्ष की कठिन तपस्या के बाद इन्हे केवलज्ञान हुआ। इनके सघ मे नब्बे गणधर, एक लाख मुनि, तीन लाख वीस हजार आर्यिकाए, तीन लाख श्रावक व पाच लाख श्राविकाए थी। इन्होने सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया। अजीव-द्रव्य-जो चेतना-रहित हे वह अजीव द्रव्य है। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये पाच अजीव-द्रव्य है। अज्ञात-भाव-अज्ञानता या प्रमाद के कारण विना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञात-भाव हैं। अज्ञान-मिथ्यात्व-हित ओर अहित के विवेक से रहित होना अथवा 'पशुवध धर्म है'-इस प्रकार अहित मे प्रवृत्ति कराने वाला जो उपदेश है वह अज्ञान-मिथ्यात्व है। अज्ञान-परीषह-जय-अत्यत कठोर तपस्या करने के उपरात भी अवधिज्ञानादि विशेष ज्ञान प्राप्त न होने पर परिणामो मे समता रखना अज्ञान-परीषह-जय कहलाता है। जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 5

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