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वाले शिष्यों के अनुग्रह के लिए आचाराङ्ग आदि बारह अङ्गी के आधार पर रच गये संक्षिप्त ग्रंथो को अङ्गवाद्य कहते है ।
अङ्गार-दोप - साधु यटि अत्यन्त आसक्त होकर आहार ग्रहण करे तो यह अङ्गार-दाप कहलाता है 1
अङ्गोपाङ्ग नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर के अङ्ग और उपाङ्गो का भेद होता है उसे अङ्गोपाङ्गनामकर्म कहते हैं। यह तीन प्रकार का है - औदारिक- शरीर अङ्गोपाङ्ग, वैक्रियिक- शरीर- अङ्गोपाङ्ग, आहारकशरीर - अङ्गोपाङ्ग ।
अचक्षुदर्शन-चक्षु इन्द्रिय को छोडकर शेष चार इन्द्रियो और मन के द्वारा वस्तु का ज्ञान होने से पूर्व जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते है ।
अचित्त-प्रासुक किए जाने पर जो वस्तु जीव-रहित हो जाती है उसे अचित्त कहते है ।
अचेलकत्व - वस्त्र आभूषण आदि समस्त परिग्रह का त्याग करके यथाजात नग्न दिगम्वर वालकवत् निविकार रूप धारण करना अचलकत्व कहलाता है । यह साधु का एक मूलगुण है । अचोर्य-दूसरे की वस्तु को उसकी अनुमति के विना नहीं लेना अचोर्य हे ।
अचौर्य - अणुव्रत - 1 स्थूल चोरी का त्याग करना अचोर्य या अस्तेय - अणुव्रत कहलाता है। 2 जन साधारण के उपयोग मे आन वाली मिट्टी, पानी, हवा आदि के अतिरिक्त विना दी हुई दूसरे की 4 / जेनदशन पारिभाषिक कोश