Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 19
________________ चार लाख श्राविकाए थी। इन्होने सम्मेद-शिखर से मोक्ष प्राप्त किया। अनन्तवीर्य-वीर्यान्तराय कर्म का क्षय हो जाने पर आत्मा मे जो अनन्त सामर्थ्य प्रकट होती है उसे अनन्तवीर्य कहते है। अनन्त-सुख-मोहनीय कर्म के क्षय से आत्मा में प्रकट होने वाले अनुपम अतीन्द्रिय-सुख को अनन्तसुख कहते है। अनन्तानुबंधी-कषाय-जो कषाय अनन्त ससार के कारणभूत मिथ्यात्व को वाधती है वह अनन्तानुबधी कषाय है। इस कषाय के उदय मे सम्यग्दर्शन उत्पन्न नही होता। यह क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार रूपो मे होती है। अनर्थदण्डविरति-जीवो के द्वारा मन, वचन, काय से होने वाली ऐसी क्रिया या प्रवृत्ति जो उपकारी न होकर मात्र पाप का अर्जन कराती है अनर्थदण्ड कहलाती है, इसका त्याग कर देना अनर्थदण्डविरति नामक गुणव्रत है। अनर्थदण्ड के पाच भेद है-पापोपदेश, हिसादान, प्रमादचर्या, अपध्यान और दु श्रुति। अनाकांक्ष-क्रिया-अज्ञानता और आलस के कारण आगम मे कहे गये विधि-विधान का अनादर करना अनाकाक्ष-क्रिया है। अनाचार-ग्रहण किए गए व्रत या प्रतिज्ञा का भग होना अनाचार है। अनात्मभूत-लक्षण-जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो, उसे अनात्मभूत-लक्षण कहते है। जैसे-टोपी पहने हुए पुरुष का लक्षण गोपी। जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 11

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