Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 20
________________ अनादि-मिथ्यादृष्टि-जिस जीव ने अनादि काल से अभी तक सम्यग्दर्शन प्राप्त ही नहीं किया उसे अनादि-मिथ्यादृष्टि कहत है। अनादेय-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से निष्प्रभ शरीर प्राप्त होता हे वह अनादय-नामकर्म है अथवा जिस कर्म के उदय से अच्छा कार्य करने पर भी गौरव प्राप्त न हो वह अनादय-नामकर्म है। अनाभोग-क्रिया-विना शोधन किए ओर विना देखे असावधानी पूर्वक भूमि पर सोना, उठना-बैठना आदि अनामाग-क्रिया है। अनायतन-सम्यग्दर्शन आदि गुणों के आधार या आश्रय को आयतन कहते हैं और इनसे विपरीत मिथ्यादर्शन आदि के आश्रय या आधार को अनायतन कहते है। अनाहारक-जिन जीवों के औदारिक आदि शरीर की रचना के योग्य पुद्गल-स्कधो का ग्रहण नहीं होता वह अनाहारक कहलाते हैं। विग्रहगति मे स्थित चारो गति के जीव केवलि समुद्घात की प्रतर ओर लोकपूरण अवस्था मे स्थित सयोग-कंवली, अयोग-केवली और सिद्ध भगवान-ये सव अनाहारक होते है। अनि सृत अवग्रह-वस्तु के किसी एक भाग को देखकर उस वस्तु को पूर्णत जान लेना अनि सृत अवग्रह कहलाता है। जैसे-पानी मे डूवे हाथी की सूड देखकर पूरे हाथी का ज्ञान होना। अनित्यानुप्रेक्षा-यह शरीर, इन्द्रिया और भोग-उपभोग की समस्त सामग्री क्षणभगुर है पर मोहवश अज्ञानी जीव उसे नित्य या शाश्वत मानकर सुखी-दुखी होता रहता है। इस नश्वर शरीर आदि से ममत्व छोडकर शाश्वत आत्मा का बार-बार चितन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। 12 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश

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