Book Title: Jain Darshan
Author(s): Kshamasagar
Publisher: Kshamasagar

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Page 11
________________ अगृहीत- मिथ्यात्व कहते है । अग्निकाय - अग्निकायिक जीव के द्वारा छोडा गया शरीर अग्निकाय कहलाता है। अग्निकायिक- अग्नि ही जिसका शरीर हे उसे अग्निकायिक कहते हे । अग्निचारण ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु अग्निशिखा मे स्थित जीवो की विराधना के बिना उन विचित्र अग्निशिखाओ पर से गमन करने में समर्थ होता है वह अग्निचारण ऋद्धि है। अग्निजीव - जो जीव अग्निकायिक में उत्पन्न होने के लिए विग्रहगति में जा रहा है उसे अग्निजीव कहते है । अग्रायणी पूर्व- जिसमे क्रियावाद आदि की प्रक्रिया ओर स्व- समय का विषय विवेचित है वह अग्रायणी नाम का दूसरा पूर्व है । अघातिया कर्म- जो जीव के अनुजीवी गुणो का घात नहीं करते, पर वाह्य शरीरादि से सबंधित है वे अघातिया कर्म कहलाते है। आयु, नाम, गोत्र ओर वेदनीय ये चार अघातिया कर्म हे । अङ्ग - निमित्तज्ञान- मनुष्य व तिर्यचो के अङ्ग और उपाङ्गो को देख कर या छूकर शुभ-अशुभ और सुख-दुख आदि को जान लेना अङ्गनिमित्तज्ञान है । अङ्ग-प्रविष्ट - श्रुतज्ञान के आचारादि रूप एक-एक अवयव को अङ्ग कहते हैं। आचाराङ्ग आदि चारह प्रकार का श्रुतज्ञान अङ्ग-प्रविष्ट कहलाता है। अङ्गबाह्य- महान् आचार्यो के द्वारा अल्पबुद्धि, अल्पायु और अल्पबल जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / १

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