Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 23
________________ जैन, बौद्ध और गीत का समान दर्शन किया गया है। पारिवारिक और मामाजिक जीवन में हमारे पारस्परिक सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने तथा मामाजिक टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए इन दर्शनों का महत्वपूर्ण योगदान है। वस्तुतः इन दर्शनों में आचार शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति मुधार के माध्यम से समाज-मुबार का मार्ग प्रशस्त किया। इन्होंने व्यक्ति को समाज का केन्द्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल दिया । वस्तुतः इन दर्शनों के युग तक समाजरचना का कार्य पूरा हो चुका था अतः इन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया और मामाजिक सम्बन्धों को गुद्धि पर बल दिया। रागात्मकता और समाज सम्भवतः इन दर्शनों को जिन आधागें पर मामाजिक जीवन मे कटा हुआ माना जाता है उनमें प्रमुख हैं-गग या आमक्ति का प्रहाण, संन्यास या निवृत्तिमार्ग की प्रधानता तथा मोक्ष का प्रत्यय । ये हो ऐमे तन्व है जो व्यक्ति को सामाजिक जीवन से अलग करते हैं । अतः भारतीय मदर्भ में इन प्रत्ययों को सामाजिक दृष्टि से समीक्षा भावश्यक है। ___ मर्वप्रथम भारतीय दर्शन आमक्ति, राग या तृष्णा की ममाप्ति पर बर देता है, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या आमक्ति या राग मे ऊपर उठने की बात सामाजिक जीवन से अलग करती है । सामाजिक जीवन का आधार पारस्परिक सम्बन्ध है और सामान्यतया यह माना जाता है कि राग से मुक्ति या आमक्ति को समाप्ति तभी सम्भव है जबकि व्यक्ति अपने को मामाजिक जीवन में या पारिवारिक जीवन से अलग कर ले। किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा हो है । न ता सम्बन्ध तोड़ देने मात्र से गग समाप्त हो जाता है. न राग के अभाव मात्र से संबंध टूट जाते हैं, वास्तविकता तो यह है, कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे यथार्थ सामाजिक संबंत्र ही नहीं बन पाते । सामाजिक जीवन और सामाजिक संबंधों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया राग द्वेप का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं तो इन संबंधों से टकराहट एवं विषमता स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है । बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं: उपद्रवा ये च भवन्ति लोके चावन्ति दुःनानि भयानि चैव । सर्वाणि तान्यात्मपरिग्रहेण तत् किं ममानेन परिग्रहेण ।। आत्मानमपरित्यज्य दुःखं त्यक्तुं न शक्यते । यथाग्निमपरित्यज्य दाहं त्यक्तुं न शक्यते ।। संसार के सभी दुःख और भय एवं तज्जन्य उपद्रव ममत्व के कारण होते हैं । जब तक ममत्व बुद्धि का परित्याग नहीं किया जाता तब तक इन दुःखों की समाप्ति सम्भव नहीं

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