Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 65
________________ ४ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तत्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह वैयक्तिक एवं गामाजिक ममता के विचलन के दो कारण है-एक भोह और दूसरा क्षोभ । गोह ( आमक्ति ) विचलन का एक आन्तरिक कारण है जो राग, द्वेप, क्रोध, मान, माया, लोभ (नाणा) आदि के रूप में प्रकट होता है। हिमा. गोपण, तिरस्कार या अन्याय-य लोभ के कारण हैं जो अन्नर मानम को पीडित करने हैं । यद्यपि मोह ओर क्षोभ ऐसे तन्त्र नहीं है जो एक-दुमरे मे अलग और अप्रभावित हों, तथापि मोह के कारण आन्तरिक और उसका प्रकटन वाह्य है, जबकि क्षोभ के कारण बाह्य है और उमका प्रकटन आन्तरिक है। मोह वैयक्तिक गई है, जो ममाज-जीवन को पित करती है, जबकि 'क्षोभ' मामाजिक बुगई है, जो वैयक्तिक जीवन को दूषित करती है। मोह का केन्द्रीय तन्व आमवित ( गग या तणा) है, जबकि क्षोभ का केन्द्रीय तत्त्व हिमा है। इम प्रकार जैन-आचार में सम्यक् चारित्र की दृष्टि से अहिंगा और अनासक्ति ये दो नेन्द्रीय सिद्धान्न है । एक बाह्य जगत् या मामाजिक जीवन में ममत्व का संस्थापन करता है ता दुमरा चतमिक या आन्तरिक ममत्व को बनाये रखता है । वैचारिक क्षेत्र में अहिंगा और अनासक्ति मिलकर अनाग्रह या अनेकान्तवार को जन्म देते हैं । आग्रह वैचारिक आमनित है और एकान्त वैचारिक हिमा । अनासक्ति का सिद्धान्त हो अहिंमा से ममन्वित हो मामाजिक जीवन में अपरिग्रह का आदेश प्रस्तुत करता है। संग्रह वैयक्तिक जीवन के मन्दर्भ में आसक्ति और मामाजिक जीवन के सन्दर्भ में हिंसा है । इस प्रकार जैन-दर्शन मामाजिक नैतिकता के तीन केन्द्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत करता है:१. अहिंसा. २. अनाग्रह (वैचारिक महिष्णुता) ओर ३. अपरिग्रह (असंग्रह)। ___ अब एक दूसरो दृष्टि से विचार करें। मनुष्य के पास मन, वाणी और शरीर ऐसे तीन माधन हैं, जिनके माध्यम से वह सदाचरण या दुराचरण में प्रवृत्त होता है । शरीर का दुगवरण हिंसा और सदाचरण अहिंमा कहा जाता है। वाणी का दुराचरण आग्रह ( वैचारिक असहिष्णुता ) और मदाचरण अनाग्रह (वैचारिक सहिष्णुता ) है । जबकि मन का दुराचरण आसक्ति (ममत्व) और सदाचरण अनासक्ति (अपरिग्रह) है । वैसे यदि अहिंसा को ही केन्द्रीय तत्त्व माना जाय तो अनेकान्त को वैचारिक अहिंसा और बनासक्ति को मानसिक अहिंमा ( स्वदया ) कहा जा सकता है । साप हो अनासक्ति से

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