Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 104
________________ सामाविक नैतिकता के कनीय तत्व : महिला, मनापह और अपरिवह ८९ सामाजिक एवं पारिवारिक सहिष्णुता कौटुम्बिक क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर कुटुम्बों में और कुटुम्ब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का निर्माण करेगा । सामान्यतया पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र होते हैं-पिता-पुत्र तथा सास-बहू । इन दोनों के विवादों में मूल कारण दोनों का दृष्टि-भेद है। पिता जिस परिवेश में पला है उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। जिस मान्यता को स्वयं मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभवप्रधान होती है जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान । एक प्राचीन संस्कारों से ग्रस्त होता है तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है । यही स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है कि बहू ऐसा जीवन जिये जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में जिया था, जबकि बहु अपने युग के अनुरूप और अपने मातृपक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है । मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह भी होती है कि वह उतना ही स्वतन्त्र जीवन जीये जैसा वह अपने माता-पिता के पास जीती थी । इसके विपरीत श्वसुर पक्ष उससे एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है । यही सब विवाद के कारण बनने है । इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। वस्तुतः इसके मूल में जो दृष्टि भेद है उसे अनेकान्त पद्धति से सम्यक् प्रकार जाना जा सकता है। वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के सम्बन्ध में कोई विचार करें, कोई निर्णय लें तो हमें स्वयं अपने को उम स्थिति में खड़ा कर मोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में स्वयं को खड़ा करके हो उसे मम्यक् प्रकार में जाना जा सकता है। पिता पुत्र से जिम बात की अपेक्षा करता है, उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर विचार कर ले । अधिकारी कर्मचारी से जिम नंग में काम लेना चाहता है उसके पहले स्वयं को उम स्थिति में खड़ा करे, फिर निर्णय ले । यही एक दृष्टि है जिसके द्वारा एक सहिष्णु मानम का निर्माण किया जा सकता है और मानव-जाति को वैचारिक संघर्षों से बचाया जा मकता है। अनाग्रह को अवधारणा के फलित-मत् अनन्त पहलओं से युक्त है तथा मानवीय ज्ञान के माधन सीमित एवं सापेक्ष है, अतः सामान्य व्यक्ति का ज्ञान सीमित (आंशिक) और सापेक्ष होता है। दूसरे आग्रह, जो वस्तुतः वैचारिक राग ही है, सत्य को रंगीन बना देता है। रागात्मिका बुद्धि भी सत्य को विकृत कर देती है। परिणामस्वरूप सामान्य व्यक्ति को जो भी ज्ञान होता है वह अपूर्ण तो होता ही है, अशुद्ध भी होता है । अतः सत्यान्वेपण एवं विचारशुद्धि की आवश्यक शर्ते निम्न है १. सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान सामान्य मानव के लिए सम्भव नहीं है, सत्य के अनेक

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