Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 109
________________ जेन, बोड और गोता.का समान दर्शन निष्काम भाव से कर्म कर ।' गीताकार ने आसक्ति के प्रहाण का जो उपाय बताया है वह यह है कि सभी कुछ भगवान् के चरणों में समर्पित कर और कर्तृत्व भाव से मुक्त होकर जीवन जीना चाहिए। इम प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन अनासक्ति के उदय और आमक्ति के प्रहाण को अपने नैतिकदर्शन का महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं। आमक्ति के प्रहाण के दो ही उपाय है । आध्यात्मिक रूप में आमक्ति के प्रहाण के लिए हृदय में मन्तोषवृत्ति का उदय होना चाहिए, जबकि व्यावहारिक रूप में आसक्ति के प्रहाण के लिए जैन आचारदर्शन में मुझायी गयो परिग्रह की मीमा-रेखा का निर्धारण भी आवश्यक है। जब तक हृदय में सन्तोपवृत्ति का उदय नहीं होता, तब तक यह दुष्पूर्य तृष्णा एवं आसक्ति ममाप्त नहीं होती। उत्तराध्ययन सूत्र में जो यह कहा गया है कि 'लाभ से लोभ बढ़ता जाता है', उमी का मन्त मुन्दरदासजी ने एक सुन्दर चित्र खींचा है । वे कहते हैं कि जो दस बीस पचास भये, शत होई हजार तु लाख मगेगी। कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य, धरापति होने की चाह जगेगी ।। स्वर्ग पताल को राज कगे. तिमना अधिकी अति आग लगेगी। सुन्दर एक संतोष बिना, शठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगेगी ॥ पाश्चात्य विचारक महात्मा टालस्टाय ने भी How Much Land Does A Man Rcquire नामक कहानी में एक ऐसा ही सुन्दर चित्र खींचा है। कहानी का सारांश यह है कि कथानायक भूमि की असीम तृष्णा के पीछे अपने जीवन की बाजी भी लगा देता है, किन्तु अन्त में उसके द्वारा उपलब्ध किये गये विस्तृत भू-भाग में केवल उसके शव को दफनाने जितना भू-भाग ही उसके उपयोग में आता है। वस्तुतः तृष्णा की समाप्ति का एक ही उपाय है-हृदय में सन्तोषवृत्ति या त्याग भावना का उदय । महाभारत के आदिपर्व में ययाति ने कहा है कि जिस प्रकार अग्नि में घृत डालने से अग्नि शान्त नहीं होती, उसी प्रकार कामभोगों से तृष्णा शान्त नहीं होती, वरन् बढ़ती ही जाती है। तृष्णा की अग्नि केवल त्याग के द्वारा ही शान्त हो सकती है । अतः मनुष्य को तृष्णा का त्याग कर सच्चे सुख को शोध करना चाहिए और वह सुख उसे संतोषमय जीवन जीने से ही उपलब्ध हो सकता है । बनासक्ति के प्रश्न पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएं अनासक्ति के सैद्धान्तिक पक्ष पर समानरूप से बल देती हैं, किन्तु उसके व्यावहारिक फलित अपरिग्रह के सिद्धान्त को लेकर उनमें मत १. गीता, १६।१६.

Loading...

Page Navigation
1 ... 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130