Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 120
________________ सामाजिक पर्म एवं पापित १०५ औषषि का सेवन करता है । यहाँ जैनधर्म की निवृत्तिप्रधान दृष्टि कोअक्षुण्ण रखते हुए वैवाहिक जीवन की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है। वैवाहिक जीवन की आवश्यकता न केवल यौन-वासना की संतुष्टि के लिए अपितु कुल जाति एवं धर्म का संवर्द्धन करने के लिए भी है । आदिपुराण में यह भी उल्लेख है कि विवाह न करने से सन्तति का उच्छेद हो जाता है, सन्तति के उच्छेद से धर्म का उच्छंद हो जाता है अतः विवाह गृहस्थों का धार्मिक कर्तव्य है। वैवाहिक जीवन में परस्पर प्रीति को आवश्यक माना गया है, यद्यपि जैनधर्म का मुख्य बल वासनात्मक प्रेम को अपेक्षा समर्पण भावना या विशुद्ध प्रेम की ओर अधिक है । नेमि और राजुल तथा विजयसेठ और विजया सेठानी के वासनारहित प्रेम की चर्चा से जैन कथा साहित्य परिपूर्ण है। इन दोनों युगलों की गौरवगाथा आज भी जैन समाज में श्रद्धा के साथ गाई जाती है । विजय सेठ और विजया सेठानी का जीवन-वृत्त गृहस्थ जीवन में रहकर ब्रह्मचर्य के पालन का सर्वोच्च आदर्श माना जाता है । वैवाहिक जीवन से सम्बन्धित अन्य समस्याओं जैसे विवाह-विच्छेद, विधवा-विवाह, पुनर्विवाह आदि के विधि-निषेध के सम्बन्ध में हमें स्पष्ट उल्लेख तो प्राप्त नहीं होते है कि जैन कथासाहित्य में इन प्रवृत्तियों को सदैव ही अनैतिक माना जाता रहा है। अपवादरूप से कुछ उदाहरणों को छोड़कर जैन समाज में अभी तक इन प्रवृत्तियों का प्रचलन नहीं है और न ऐसी प्रवृत्तियों को अच्छी निगाह से देखा जाता है । यपि विधवा विवाह और पुनर्विवाह के समर्थक ऋषभदेव के जीवन का उदाहरण देते है। जैन कथा माहित्य के अनुसार ऋषभदेव ने एक युगलिये की अकाल मृत्यु हो जाने पर उसकी बहन/पत्नी से विवाह किया था । जैन कथा साहित्य के अनुसार ऋषभदेव के पूर्व बहन ही यौवनावस्था में पत्नी बनती थी, उन्होंने ही इस प्रथा को समाप्त कर विवाह संस्था की स्थापना की थी अतः यह मानना उचित नहीं है कि उन्होंने विधवा विवाह किया था। समाज में बहुपत्नी प्रथा की उपस्थिति के अनेक उदाहरण जैन आगम साहित्य और कथा साहि-य में मिलते हैं, यद्यपि बहुपति प्रथा का एक मात्र द्रौपदी का उदाहरण हो उपलब्ध है-किन्तु इनका कहीं समर्थन किया गया हो या इन्हें नैतिक और धार्मिक दृष्टि में उचित माना गया हो ऐसा कोई भी उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। आदर्श के रूप में सदैव ही एक पत्नी व्रत या एक-पतिव्रत की प्रशंसा की गई है । वस्तुतः जैनधर्म वैयक्तिक नैतिकता पर बल देकर सामाजिक सम्बन्धों को शुद्ध और मधुर बनाता है । उसके सामाजिक आदेश निम्न हैं: १. आदिपुराण ११११६६-१६७. २. वही १५।६१-६४.

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