Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 124
________________ सामाजिक धर्म एवं दायित्व १०९ ४. सभी को एक समान समझना' । वस्तुतः बुद्ध की दृष्टि में यह स्पष्ट था कि ये चारों ही सूत्र ऐसे हैं जो सामाजिक जीवन के सफल संचालन में सहायक हैं। सभी को एक समान समझना सामाजिक न्याय का प्रतीक है और बिना प्रतिफल की आकांक्षा के कार्य करना निष्काम सेवा-भाव का प्रतीक है। इसी प्रकार दानशीलता सामाजिक अधिकार एवं दायित्वों की और स्नेहपूर्ण वाणी सामाजिक सहयोग भावना की परिचायक है । बुद्ध सामाजिक दायित्वों को पूरी तरह स्वीकार करते हैं और यह स्पष्ट कर देते हैं कि असंयम और दुराचारमय जीवन जीते हुए देश का अन्न खाना वस्तुतः अनैतिक है । असंयमी और दुराचारी बनकर देश का अन्न खाने की अपेक्षा अग्निशिखा के समान तप्त लोहे का गोला खाना उत्तम हूं (इतिवृत्तक ३।५/५०) । 1 बुद्ध ने सामाजिक जीवन के लिए सहयोग को आवश्यक कहा है । उनकी दृष्टि में सेवा की वृत्ति श्रद्धा और भक्ति से भी अधिक महत्वपूर्ण है । वे कहते हैं, भिक्षुओं, तुम्हारे माँ नहीं, तुम्हारे पिता नहीं हैं जो तुम्हारी परिचर्या करेंगे । यदि तुम एक दूसरे की परिचर्या नहीं करते तो कौन है जो तुम्हारी परिचर्या करेगा ? जो मेरी परिचर्या करता है उसे रोगी की परिचर्या करना चाहिए । बुद्ध का यह कथन महावीर के इस कथन के समान ही है कि रोगी की परिचर्या करने वाला ही सच्चे अर्थो में मेरी सेवा करनेवाला । बुद्ध की दृष्टि में जो व्यक्ति अपने माता, पिता, पत्नी एवं बहन आदि को पीड़ा पहुँचाता है, उनकी मेवा नहीं करता है, वह वस्तुतः अधम ही है ( सुत्तनिपात ७।९-१० ) । सुत्तनिपात के पराभवसुत्त में कुछ ऐसे कारण वर्णित हैं जिनसे व्यक्ति का पतन होता है । उन कारणों में से कुछ सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हैं हम यहाँ उन्हीं की चर्चा करेंगे - १. जो समर्थ होने पर भी दुबले और बूढ़े माता-पिता का पोषण नही करता, २. जो पुरुष अकेला ही स्वादिष्ट भोजन करता है, ३. जो जाति, धर्म तथा गोत्र का गर्व करता है और अपने बन्धुओं का अपमान करता है, ४. जो अपनी स्त्री से असन्तुष्ट हो वंश्याओं तथा परस्त्रियों के साथ रहता है, ५. जो लालची और सम्पत्ति को बरबाद करने वाले किसी स्त्री या पुरुष को मुख्य स्थान पर नियुक्त करता है ये सभी बातें मनुष्य के पतन का कारण हैं (सुत्तनिपात ६८, १२, १४, १८, २२) । इस प्रकार बुद्ध ने सामाजिक जीवन को बड़ा महत्व दिया है । बोद्ध धर्म में सामाजिक दायित्व भगवान् बुद्ध पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में गृहस्थ उपासक के कर्तव्यों का निर्देश करते हुए दीघनिकाय के सिगालोवाद-सुत्त में कहने हैं कि गृहपति को माता-पिता आचार्य, स्त्री, पुत्र, मित्र, दाम ( कर्मकर) और श्रमण-ब्राह्मण का प्रत्युपस्थान (सेवा) १. अंगुत्तरनिकाय, II, ३२ उद्घृत २. ( ब ) विनयपिटक I, ३०२ उद्धृत गौतम बुद्ध, पृ० १३२ । गौतम बुद्ध पृ० १३५ ।

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