Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 116
________________ सामाजिक पर्म एवं दायित्व १०१ प्रयत्नशील रहे। जैन परम्परा के अनुसार साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चारों से मिलकर संघ का निर्माण होता है। नन्दीसूत्र में संघ के महत्त्व का विस्तारपूर्वक सुन्दर विवेचन हुआ है, जिससे स्पष्ट है कि जैन में नैतिक साधना में संघीय जीवन का कितना अधिक महत्त्व है। ८बतधर्म-सामाजिक दृष्टि से श्रुतधर्म का तात्पर्य है शिक्षण व्यवस्था सम्बन्धी नियमों का पालन करना। शिष्य का गुरु के प्रति, गुरु का शिष्य के प्रति कैसा व्यवहार हो यह श्रुतधर्म का ही विषय है। सामाजिक संदर्भ में श्रुतधर्म से तात्पर्य शिक्षण की सामाजिक या संघीय व्यवस्था है । गुरू और शिष्य के कर्तव्यों तथा पारस्परिक सम्बन्धों का बोध और उनका पालन श्रुतधर्म या ज्ञानार्जन का अनिवार्य अंग है। योग्य शिष्य को ज्ञान देना गुरु का कर्तव्य है, जबकि शिष्य का कर्तव्य गुरु की आज्ञाओं का श्रद्धापूर्वक पालन करना है। चारित्रधर्म-चारित्रधर्म का तात्पर्य है श्रमण एवं गृहस्थ धर्म के आचारनियमों का परिपालन करना । यद्यपि चरित्रधर्म का बहुत कुछ-न्ध वैयक्तिक साधना से है, तथापि उनका सामाजिक पहलू भी है। जैन आचार नयमों एवं उपनियमों के पीछे मामाजिक दृष्टि भी है। अहिंसा सम्बन्धी मभी लि. और उपनियम सामाजिक शान्ति के संस्थापन के लिए हैं। अनाग्रह सामाजिक जीवन से वैचारिक विवेप एवं वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है। इसी प्रकार अपरिग्रह सामाजिक जीवन से संग्रह वृत्ति, अस्तेय और शोषण को समाप्त करता है । अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह पर आधारित जैन आचार के नियम-उपनियम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में सामाजिक दृष्टि से युक्त हैं यह माना जा सकता है । १०. अस्तिकायधर्म-अस्तिकायधर्म का बहुत कुछ मम्बन्ध तत्त्वमीमांमा से है, अतः उसका विवेचन यहाँ अप्रासंगिक है । ____ इस प्रकार जैन आचार्यों ने न केवल वैयक्तिक एवं आध्यात्मिक पक्षों के मम्बन्ध में विचार किया वरन् सामाजिक जीवन पर भी विचार किया है। जैन सूत्रों में उपलब्ध नगरधर्म, प्रामधर्म, राष्ट्रधर्म आदि का वर्णन इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन आचारदर्शन सामाजिक पक्ष का यथोचित मूल्यांकन करते हुए उसके विकास का भी प्रयाम करता है। जैनधर्म और सामाजिक दायित्व यद्यपि प्राचीन जैन आगम साहित्य में सामाजिक दायित्व का विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं है किन्तु उसमें यत्र-तत्र कुछ बिखरे हुए ऐसे मूत्र है, जो व्यक्ति के सामाजिक दायित्वों को स्पष्ट करते है। जैन आगमों को अपेक्षा परवर्ती साहित्य में मुनि और १. नन्दीसूत्र-पीठिका, ४-१७

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