Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 110
________________ सामाजिक नैतिकता के कोष तत्व : अहिंसा, अनामह और अपरिग्रह ९५ भेद भी है । जहाँ जैन-दर्शन के अनुसार अनासक्त होने के लिए अपरिग्रही होना आवश्यक है, वहां गीता और बौद्ध दर्शन यह नहीं मानते है कि अनासक्त होने के लिए अपरिग्रही होना आवश्यक नहीं है । जैन दर्शन के अनुसार अनासक्त जीवन दृष्टि का प्रमाण यही है कि व्यक्ति का बाह्यजीवन मर्वथा अपरिग्रही हो । परिग्रह का होना स्पष्टतया इस बात का सूचक है कि व्यक्ति में अभी अनासक्ति का पूर्ण विकास नही हुआ है। यही कारण है कि जैनधर्म की दिगम्बर परम्परा मुक्ति के लिए बाह्य परिग्रह का पूर्णतया स्याग आवश्यक मानती है। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा यह मानती है कि पूर्ण अनासक्त वृत्ति का उदय तो बिना परिग्रह का पूर्ण त्याग किये भी हो सकता है, किन्तु वह भी इतना तो अवश्य मानती ही है कि अनासक्ति का पूर्ण प्रकटन होने पर व्यक्ति बाह्य परिग्रह में उलझा हुआ नहीं रहता है, वह उसका परित्याग कर मुनि बन जाता है। दोनों में अन्तर मात्र यही है कि प्रथम के अनुसार बाह्य परिग्रह का त्याग होने पर ही कैवल्य की प्राप्ति होती है तो दूसरे के अनुसार बाह्य परिग्रह का त्याग होने के पूर्व भी कैवल्य हो मकता है। यद्यपि कैवल्यलाभ के बाद दोनों के ही अनुमार व्यक्ति गर्वथा अपरिग्रही हो ही जाता है। गीता के अनुमार, अनासक्त वति के लिए परिग्रहत्याग आवश्यक नहीं है । वैदिक परम्पग के जनक पूर्ण अनामक्त होते हुए भी राजकाज का संचालन करते रहते हैं, जबकि जैन परम्पग का भरत पूर्ण अनामक्ति के आने ही गजकाज छोड़कर मुनि बन जाता है । अनामक्ति और अपरिग्रह के मंदर्भ में जैन परम्पग विचारपक्ष और आचारपक्ष को एकरूपता पर जितना बल देती है उतना वैदिक परम्परा नही । वैदिक परम्परा के अनुसार अन्तस् में अनामक्ति और बाह्य जीवन में परिग्रह दोनों एक माथ सम्भव है। इस मम्बन्ध में बौद्ध धर्म का दष्टिकोण भी जैन परम्पग के अधिक निकट है। फिर भी उसे जैन और वैदिक परम्पगओं के मध्य रखना ही उचित होगा। जैन धर्म ने जहां मुनिजीवन के लिए परिग्रह के पूर्ण त्याग और गृहस्थ जीवन में परिग्रह-परिसीमन की अवधारणा प्रस्तुत की, वहां बोद्ध धर्म न केवल भिक्षु के लिए स्वर्ण-ग्जतरूप परिग्रह त्याग की अवधारणा प्रस्तुत की। उसमें गृहस्य के लिए परिग्रह परिमोमन का प्रश्न नहीं उठाया गया है । गीता और वैदिक परम्परा यद्यपि संचय और परिग्रह की निन्दा करती है फिर भी वं परिग्रहन्याग को अनिवार्य नही बताती हैं। अनामक्ति और अपरिग्रह को लेकर तोनों परम्पराओं में यही मूलभूत अन्तर है। वस्तुतः अनासक्ति का अर्थ है-ममत्व का विमर्जन । समत्व-चाहे वह वैयक्तिक हो या सामाजिक-के गर्जन के लिए ममत्व का विसर्जन आवश्यक है । अनासक्ति और अपरिग्रह में एक ही अन्तर है, वह यह कि अपरिग्रह में ममत्व के विसर्जन के साथ ही सम्पदा का विसर्जन भी आवश्यक है। अनासक्ति, अमूळ या अलोम का प्रश्न निरा

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