Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 106
________________ सामाणिक मैतिकता के केनीय तव : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिवह वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार आसक्ति बाह्यतः तीन रूपों में होती है१. अपहरण (शोपण), २. भोग और ३. संग्रह। आसक्ति के तीन रूपों का निग्रह करने के लिए जैन आचारदर्शन में अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतों का विधान है । संग्रह-वृत्ति का अपरिग्रह से, भोगवृत्ति का ब्रह्मचर्य से और अपहरणवृत्ति का अस्तेय महाव्रत से निग्रह होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार समग्र जागतिक दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। कहा गया है-जिसकी तष्णा समाप्त हो जाती है उसका मोह समाप्त हो जाता है और जिसका मोह मिट जाता है उसके दुःख भी समाप्त हो जाते है ।' आसक्ति का ही दूसरा नाम लोभ है और लोभ समग्र सद्गुणों का विनाशक है । जैन विचारणा के अनुमार तृष्णा एक ऐसी खाई है जो कभी भी पाटी नही जा सकती । दुष्पूर तृष्णा का कभी अन्त नहीं आता। उत्तराध्ययनमूत्र में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यदि मोने और चांदी के कैलाश पर्वत के ममान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिये जायें तो भी यह दुःपूर्य तृष्णा शान्त नही हो सकती, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो, वह सीमित है और नष्णा अनन्त (अमीम) है, अतः सीमित माधनों से हम अमीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती । किन्तु जब तक तृष्णा शान्त नहीं होती, तब तक दुखों से मुक्ति भी नहीं होती। मूत्रकृतांग के अनुमार मनुष्य जब तक किसी भी प्रकार की आसक्ति स्वता है वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता। यदि हम अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो जैन दार्शनिकों की दृष्टि में तप्णा या आम क्ति दुःख का पर्यायवाची ही बन गयी है। यह तृष्णा या आसक्ति ही परिग्रह (मंग्रहवृत्ति) का मूल है । आमक्ति ही परिग्रह है। जैन आचार्यों ने जिम अपरिग्रह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया उमके भूल मे यही अनाक्तिप्रधान दृष्टि कार्य कर रही है। यद्यपि आमक्ति एक मानमिक तप्य है, मन को ही एक वृत्ति है, तथापि उमका प्रकटन बाघ है और उसका सीधा सम्बन्ध बाह्य वस्तुओं से है। वह मामाजिक जीवन को दूपित करती है । अतः आमक्ति के प्रहाण के लिए व्यावहारिक रूप में परिग्रह का त्याग भी आवश्यक है। परिग्रह या संग्रहवृत्ति सामाजिक हिमा है । जैन आचार्यों की दृष्टि में ममग्र परिग्रह हिंसा से प्रत्युत्पन्न है । क्योंकि बिना हिमा (शोपण) के संग्रह अमम्भव है। व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूमरों के हितों का हनन करता है और हम प में मंग्रह या परिग्रह हिमा का ही एक रूप है । वह हिंमा या गोषण का जनक है । अनासक्ति को जीवन में उतारने के लिए जैन आचार्यों ने यह आवश्यक माना कि मनुष्य बाह्य-परिग्रह का भी त्याग १. उत्तराध्ययन, ३१८. ३. उनराध्ययन, ९।४८. ५. दशवकालिक, ६।२१. २. दगर्वकालिक, ८।३८. ४. सूत्रकृतांग, ११११२.

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