Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 68
________________ सामाजिक नैतिकता के केनीय तरस : बहिसा मनापह बार मरित्रह पुका है, उसे ही सुख है, उसे ही शान्ति है।' अंगुनरनिकाय में यह बात और अधिक स्पष्ट कर दी गयी है। हिंसक व्यक्ति जगत् में नारकीय जीवन का और अहिंसक व्यक्ति स्वर्गीय जीवन का सृजन करता है। वे कहते है-"भिक्षुओं, तीन धर्मों से युक्त प्राणो ऐसा होता है जैसे लाकर नरक में डाल दिया गया हो। कौन से तीन ? स्वयं प्राणी हिंसा करता है, दूसरे प्राणो का हिंसा की ओर घसीटता है और प्राणी-हिंसा का समर्थन करता है। भिक्षुओं, तीन धर्मा से युक्त प्राणी ऐसा ही होता है, जैसे लाकर नरक में डाल दिया गया हो।" ___ "भिक्षओं, तीन धर्मों से युक्त प्राणी ऐसा होता है, जैसे लाकर स्वर्ग में डाल दिया गया हो । कोन से तीन ?" "स्वयं प्राणी हिंसा से विरत रहता है, दूसरे को प्राणी-हिंसा की ओर नहीं घसीटता और प्राणी-हिंसा का समर्थन नहीं करता।" बौदधर्म के महायान सम्प्रदाय में करुणा और मंत्री की भावना का जो चरम उत्कर्ष देखा जाता है, उसकी पृष्ठभूमि में यही अहिंसा का सिद्धान्त रहा है । हिनधर्म में अहिंसा का स्थान-गीता में अहिंसा का महत्त्व स्वीकृत करते हुए उसे भगवान् का ही भाव कहा गया है। उसे देवी सम्पदा एवं सात्विक तप भी कहा है।' महाभारत में तो जैन विचारणा के समान हो अहिंसा में सभी धर्मों को अन्तर्भूत मान लिया गया है। यही नहीं, उममें धर्म के उपदेश का उद्देश्य भी प्राणियों को हिंसा से विरत करना है। महिमा ही धर्म का सार है। महाभारतकार का कथन है कि'प्राणियों की हिंसा न हो, इसलिए धर्म का उपदेश दिया गया है, अतः जो अहिंसा से युक्त है, वही धर्म है । लेकिन यह प्रश्न हो सकता है कि गीता में बार-बार अर्जुन को युद्ध करने के लिए कहा गया, उमका युद्ध मे उपरत होने का कार्य निन्दनीय तथा कायरतापूर्ण माना गया है, फिर गोता को अहिंमा को समर्थक कैसे माना जाए? इस सम्बन्ध में गीता के व्याख्याकारों की दृष्टिकोणों को समझ लेना आवश्यक है। आद्य टीकाकार आचार्य शंकर 'युध्यस्व (युद्ध कर)' शब्द को टीका में लिखते हैं यहां (उपर्युक्त कथन से) युद्ध की कर्तव्यता का विधान नहीं है। इतना ही नहीं, आचार्य 'आत्मोपम्येन सर्वत्र' के आधार पर गीता में अहिंसा के सिद्धान्त की पुष्टि करते है-'जैसे मुझे मुख प्रिय है वैसे हो मभी प्राणियों को मुख अनुकूल है और जैसे दुःख मुझे अप्रिय या प्रतिकूल १. धम्मपद, २०१ २. अंगुत्तरनिकाय, ३३१५३ ३. गोता १०१५-७, १६।२, १७।१४ ४. महाभारत, शान्ति पर्व, २४५।१९ ५. वही, १०९।१२ ६. गीता (शांकर भाष्य), २०१८

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