Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 77
________________ जैन, बौड और गोता का समान दर्शन उसकी किसी भी चेष्टा से जो भी प्राणी मर जाते है, वह निश्चित रूप से उन सबका हिंसक होता है । इतना ही नहीं, वरन् जो प्राणी नहीं मारे गये हैं, प्रमत्त मनुष्य उनका भी हिंमक है, क्योंकि वह अन्तर मे सर्वतोभावन पापात्मा है' इस प्रकार आचार्य का निष्कर्ष यही है कि केवल दृश्यमान् पापम्प हिमा से ही कोई हिंसक नहीं हो जाता। __ आचार्य कुन्दकन्द प्रवचनमार में कहते है कि बाहर मे प्राणी मरे या जिए असंयताचार्ग प्रमत्त) का हिमा का दोप निश्चित रूप में लगता है। परन्तु जो अहिंसा की माधना के लिए प्रयत्नशील है, ममितिवान या संयताचारी है, उसको बाहर से होने वाली हिंसा के कारण कर्म बन्धन नहीं होता । आचार्य अमृतचन्द्र मूरि लिखते हैं कि रागादि कपायों में उपर उठकर नियमपूर्वक आचरण करते हुए भी यदि प्राणघात हो जाये तो वह हिमा नहीं है । निशीथचूणि में भी कहा गया है कि प्राणातिपात (हिंसा) होने पर भी अप्रमत्त माधक अहिंसक है और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों की दृष्टि में हिंसा अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप में आन्तरिक रहा है। इग दृष्टिकोण के पीछ प्रमुख विचार यह है कि एक ओर व्यावहारिक रूप में पूर्ण अहिंसा का पालन और दूसरी और आध्यात्मिक साधना के लिए जीवन को बनाये रखने का प्रयास, यह दो ऐसी स्थितियां हैं जिनको साथ-साथ चलाना सम्भव नहीं होता है। अतः जैन-विचारकों को अन्त में यही स्वीकार करना पड़ा कि हिमा-अहिंसा का सम्बन्ध बाहरी घटनाओं की अपेक्षा आन्तरिक वृत्तियों से है। इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें गीता और धम्मपद में भी मिलता है। गीता कहती है, जो अहंकार की भावना से मुक्त है, जिसकी बुद्धि मलिन नहीं है, वह इन सब मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता है और वह ( अपने इस कर्म के कारण ) बन्धन में नहीं पड़ता। धम्मपद में भी कहा है कि (नष्कर्म्य-स्थिति को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजा-सहित राष्ट्र को मारकर भी, निष्पाप होकर जाता है (क्योंकि वह पाप-पुण्य से ऊपर उठ जाता है)। यहां गीता और धम्मपद में प्रयुक्त 'मार कर' शब्द पर आपत्ति हो सकती है। जैनपरम्परा में सामान्यतया इस प्रकार के प्रयोग नहीं हैं, फिर भी जैनागमों मे ऐसे अपवाद स्थानों का विवेचन उपलब्ध है जबकि हिंसा अनिवार्य हो जाती है। ऐसे अवसरों पर अगर की जाने वाली हिंसा से डर कर कोई उसका आचरण नहीं करता (वह हिंसा१. ओषनियुक्ति ७५२-५३ २. वही, ७५८ [३. प्रवचनसार, ३११७ ४. पुरुषार्थसिद्धियुक्ति, ४५ ५. निशीपचूणि ९२ ६. देखिए-दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ० ४१४ ७. गीता, १८-१७ ८. धम्मपद, २९४ -- ---- - - --..

Loading...

Page Navigation
1 ... 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130