Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 39
________________ जैन, बौद्ध और पीता का समापन उपाध्याय के स्वर में कहना पड़ता है, "कितनी उदात्त भावना है । विश्व चेतना के साथ अपनं को आत्मसात् करने की कितनी विह्वलता है। परार्थ में आत्मार्थ को मिला देने का कितना अपार्थिव उद्योग है'।' आचार्य गान्तिदेव भी केवल परोपकार या लोककल्याण का मन्दंश नहीं देने, वरन् उम लोक-कल्याण के मम्पादन में भी पूर्ण निष्काम, भाव पर भी बल देने है। निष्काम भाव में लोककल्याण कैसे किया जाये, इसके लिए मान्तिदेव ने जो विचार प्रस्तुत किये है वे उन मौलिकचिन्तन का परिणाम है । गीता के अनुसार व्यक्ति ईश्वरीय प्रेरणा को मानकर निष्काम भाव में कर्म करता रहे अथवा स्वयं को और मभी मायो प्राणियों को उमी पर ब्रह्म का ही अंश मानकर सभी में मात्मभाव जागृत कर बिना आकांक्षा के कर्म करता है । लेकिन निरीश्वरवादी और अनात्मवादी बौद्ध दर्शन में तो यह सम्भव नहीं था। यह तो आचार्य की बौद्धिक प्रतिभा ही है. जिमने मनोवैज्ञानिक आधारों पर निष्कामभाव में लोकहित को जवधारणा को गम्भव बनाया। ममाज . मावयवता के जिम मिद्धान्त के आधार पर बेडले प्रनि पाम्चान्य विचारक लोकहिन और म्वहित में ममन्वय माधते हैं और उन विचारी की मौलिकता का दावा करते है, वे विचार आचार्य गान्तिदेव के ग्रंथों में बड़े स्पष्ट कार में प्रकट हा है और उनके आधार पर उन्होंने नि:स्वार्थ कम-योग को अव. धारणा को भी मफल बनाया है। कहते हैं कि. जिम प्रकार निगत्मक (अपनेपन के भाव रहित) निज नगर में अम्यामवा अपनेपन का बोध होता है, वैने ही दूसरे प्राणियों के नगरों में अभ्याम में क्या अपनापन उत्पन्न न होगा ? अर्थात् दूसरे प्राणियों करोगे में अम्लाम में नमन्वभाव अवश्य ही उत्पन्न होगा, क्योंकि जैसे हाथ आदि अग गरीर के अवयव होने के कारण प्रिय होते हैं. वैसे ही मभी देहधारी जगत के अवयन होने के कारण प्रिय क्यों नहीं होंगे', अर्थात् वे भी उमी जगत् के, जिसका मैं अवयव है. अवयव होने के कारण प्रिय होंगे. उनमें भी आत्मभाव होगा और यदि मब में प्रियता एवं आत्मभाव उत्पन्न हो गया तो फिर दूसरों के दुःख दूर किये बिना नहीं रहा जा महंगा, कि जिमका जो दुःख हा वह उसमे अपने को बनाने का प्रपन्न तो करता है। यदि दुसरे प्राणियों को दुःम्व होता है, तो हमको उमसे क्या ? ऐसा मानो तो हाथ को पैर का दुम्ब नहीं होता, फिर क्यों हाथ मे पैर का कंटक निकालकर दुःख में उमको रक्षा करते हो ?' जैसे हाथ पैर का दुःख दूर किये बिना नहीं रह मकता, वैमे हो ममाज का कोई भी प्रज्ञायुक्त सदस्य दूसरे प्राणी का दुःख दूर किये बिना नहीं रह सकता। इस प्रकार आचार्य समाज की मावयवता को सिद्ध कर उसके आधार पर लोकमंगल का सन्देश देते हुए आगे यह भी १. बाद-दर्शन आर अन्य भारतीय दर्शन. पृ० ६१२ २. बोधिचर्यावतार, ८।११५ ३. वही, ८।११४ ४. वही, ८९९

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