Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ - ल, बोट मोर गीता समापन क्योंकि ये नैतिक विकास को बबल्स नहीं करते । वस्तुतः गीता में वर्ण-व्यवस्था के पीछे जो गुण-कर्म को धारणा है, उसे किंचित् गहराई से समझना होगा । गुण और कर्म में भी, वर्ण-निर्धारण में गुण प्राथमिक है, कर्म का चयन तो स्वयं ही गुण पर निर्भर है। गीता का मुख्य उपदेश अपनी योग्यता या गुण के माधार पर कर्म करने का है । उसका कहना है कि योग्यता, स्वभाव अथवा गुण के आधार पर ही व्यक्ति की मामाजिक जीवन प्रणाली का निर्धारण होना चाहिए।' समाज-व्यवस्था में अपने कर्तव्य निर्वाह और भाजीवका के उपार्जन के हेतु व्यक्ति को कोनसा व्यवसाय या कर्म चुनना चाहिए, यह बात उसकी योग्यता अथवा स्वभाव पर ही निर्भर है। यदि व्यक्ति अपने गुणों या योग्यताओं के प्रतिकूल व्यवसाय या सामाजिक कर्तव्य को चुनता है, तो उसके इस चयन से वहां उसके जीवन की सफलता धूमिल होती है वहीं समाज-व्यवस्था भी अस्तव्यस्तता बाती है। गीता में वर्ण-व्यवस्था के पीछे एक मनोवैज्ञानिक आधार रहा है जिसका समर्थन म. राधाकृष्णन् और पादचान्य विचारक श्री गैरल्ड हर्ड ने भी किया है। मानवीय स्वभाव में ज्ञानात्मकता या जिज्ञासावृत्ति, साहस या नेतृत्व-वृत्ति, मंग्रहात्मकता और शासित होने की प्रवृत्ति या सेवा भावना पायी जाती है। मामान्यतः मनुष्यों में इन वृत्तियों का समान रूप से विकास नहीं होता है। प्रत्येक मनुष्य में इनमें से किसी एक का प्राधान्य होता है । दूसरी ओर सामाजिक दृष्टि से समाज-व्यवस्था में चार प्रमुख कार्य है १. शिक्षणु. २. रक्षण, ३. उपार्जन और ४. सेवा । अतः यह आवश्यक माना गया है कि व्यक्ति अपने स्वभाव में जिस वृत्ति का प्राधान्य हो, उसके अनुमार सामाजिक व्यवस्था में अपना कार्य चने । जिसमें वृद्धि नर्मल्य और जिज्ञासा-वत्ति हो, वह शिक्षण का कार्य करे, जिसमें साहस और नेतत्व-वृत्ति हो वह रक्षण का कार्य करे, जिसमें विनियोग तथा संग्रह-बत्ति हो वह उपार्जन का कार्य करे और जिसमें दन्यवृत्ति या सेवावृत्ति हो वह सेवाकार्य करे । इस प्रकार जिज्ञासा, नेतृत्व, विनियोग और दैन्य की स्वभाविक वृतियों के आधार पर शिक्षण, रक्षण, उपार्जन और सेवा के सामाजिक कार्यों का विभाजन किया गया और इसी बाषार पर क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये वर्ण बने । इस स्वभाव के अनुसार व्यवसाय या वृत्ति में विभाजन में श्रेष्ठत्व और होनत्व का कोई प्रश्न नहीं उठता । गीता तो स्पष्ट रूप से कहती है कि जिज्ञासा, नेतृत्व, संग्रहवृत्ति और दैन्य आदि सभी पत्तियां त्रिगुणात्मक हैं अतः सभी दोषपूर्ण हैं । गीता को दृष्टि में नैतिक श्रेष्ठत्व इस बात पर निर्भर नहीं है कि व्यक्ति क्या कर रहा है या किन सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर रहा है, वरन् इस बात पर निर्भर है कि वह उनका १. भगवद्गीता (रा.), पृ. १५३ २. गौता, १८:४८, गोता (शा.) १८४१, ४८

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130