Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 55
________________ बैन, बोट और गीता का समाव रखन आश्रम-धर्म 'आथम' शब्द श्रम से बना है। श्रम का अर्थ है प्रयास या प्रयत्ल । जीवन के विभिन्न माध्यों की उपलब्धि के लिए प्रत्येक आश्रम में एक विशेष प्रयत्न होता है। जिस प्रकार जीवन के चार माध्य या मृत्य-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष माने गये हैं, उसी प्रकार जीवन के इन चार माध्यों की उपलब्धि के लिए इन चार आश्रमों का विधान है। ब्रह्मचर्याश्रम विद्यार्जन के लिए है और इम म्प में वह चारों ही आश्रमों की एक पूर्व तयारी रूप है। गम्थाश्रम में अर्थ और काम पुष्पार्थों को मिद्धि के लिए विशेष प्रयन्न किया जाता है, जबकि धर्म पुरुषार्थ की माधना वानप्रस्थाश्रम में और मोक्ष पुरुपायं की माधना मंन्याम आश्रम में की जाती है। यह स्मरणीय है कि वर्ण का सिद्धान्त गामाजिक जीवन के लिए है. किन्तु आश्रम का सिद्धान्त वैयक्तिक है । आश्रम सिद्धान्त यह बताता है कि व्यक्ति का आध्यात्मिक लक्ष्य क्या है, उसे अपने को किम प्रकार ले चलना है तथा अन्तिम लक्ष्य को प्राप्ति के लिए उसे कमी तयारी करनी है। डा. कान के अनमार आश्रम-मिद्धान्त एक उत्कृष्ट धारणा थी। भले ही इमे भलीभौति क्रियान्वित नही किया जा मका, परन्तु इसके लक्ष्य या उद्देश्य बड़े ही महान् और विशिष्ट थे ।' आश्रम-संस्था का विकाम कब हुआ, यह कहना कठिन है। लगभग सभी भारतीय आचार-गनी के ग्रन्थों में आश्रम-मिद्धान्त मम्बन्धी विवेचन उपलब्ध हो जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् के काल तक हमें तीन आश्रमों का विवंचन उपलब्ध होता है । उस युग तक मंन्याम आश्रम की विनर चर्चा मुनाई देनी है। संन्याम और वानप्रस्थ सामान्यतया एक ही माने गये थे, लेकिन परवर्ती माहित्य में चारों ही आश्रमों का विधान और उसके विधि-निपंध के नियम विस्तार से उपलब्ध है। वैदिक परम्पग में चागें आश्रमों के सम्बन्ध में तीन विकल्पों की चर्चा उपलब्ध होती है:-१. ममच्चय. • विकल्प एवं ३. बाघ । मनु ने इन चारों आश्रमों में समुच्चय का मिद्धान्त स्वीकार किया है। उनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य को क्रमशः चारों ही आश्रमों का अनुसरण करना चाहिए । दूसरे मत के अनुमार आश्रमों को इम अवस्था में विकल्प हो सकता है. अर्थात् मनुष्य इच्छानुमार इनमें से किमी एक आश्रम को ग्रहण कर सकता है। बाध के सिद्धान्त के अनुसार गृहस्थाश्रम ही एक मात्र वास्तविक आश्रम है और अन्य आश्रम अपेक्षाकृत उममे कम मूल्य वाले हैं । आश्रम-व्यवस्था के सन्दर्भ में विकल्प सिद्धान्त यह मानता है कि ब्रह्मचर्य आश्रम के पश्चात् गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास में से किसी भी आश्रम को ग्रहण किया जा सकता है। जाबालोपनिषद एवं भाचार्य शंकर ने इस मत का समर्थन किया है। उनका अनुमार जब भी वैराग्य उत्पन्न १ विस्तृत विवेचन के लिए देखिए-धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृ० २६४. २६७

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