Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 43
________________ धन,बोडबोरगीता का समापन __ युद्ध के इस कथन का सार यही है कि जीवन में जबतक राग-द्वेष और मोह की वृत्तिा मक्रिय है, तबतक आन्महित और लोकहित की यथार्णदृष्टि उत्पन्न नहीं होती है । राग और द्वेष का प्रहाण होने पर ही सच्ची दृष्टि का उदय होता है और जब यह यादष्टि उत्पन्न हो जाती है तब म्बार्थ (Egoism), पगणं (Altruism) और उभयार्थ (Common Good) में कोई विरोध ही नहीं रहता । हीनयान या स्थविरवाद में जो बाहतवाद अर्थात् आत्मकल्याण के दृष्टिकोण का प्राधान्य है, उसका मूल कारण तत्कालीन परिस्थितियों मानी जा सकती है। फिर भी होनयान का उस लोकमंगल की साधना में मूलतः कोई विरोध नहीं है. जो वैयक्तिक नैतिक विकास में बाधक न हो। जिम अवस्था तक वैयक्तिक नैतिक विकास और लोकमंगल की माधना में अविरोध है, उस अवस्था तक लोकमंगल उसे भी स्वीकार है । मात्र वह लोकमंगल के लिए आन्तरिक और नैनिक विद्धि को अधिक महन्व देता है। आन्तरिक पवित्रता एवं नैतिक विशुद्धि से गन्ध होकर कलाकांक्षा में युक्त लोकमेवा के आदर्श को वह स्वीकार नहीं करता । उमकी गमन आलोचनाएं ऐसे ही लोकहित के प्रति है। भिक्ष पारापरिय ने, बुद्ध के परवर्ती भिक्षओं में लोकमेवा का जो थोथा आदर्श जोर पकड़ गया था, उसको समालोचना में निम्न विचार प्रस्तुत किये हैं: लोगों की सेवा काय से करते हैं, धर्म से नहीं। दूमरों को धर्म का उपदेश देते हैं, (अपने) लाभ के लिए, न कि (उनके) अर्थ के लिए ॥' स्थविरवादी भिक्षुओं का विरोध लोकमेवा के उम रूप से है जिमका मेवारूपी गगेर तो है, लेकिन जिनको नैतिक चेतनारूपी आत्मा मर चुकी है। वह लोकसेवा सेवा नहीं, सेवा का प्रदर्शन है. दिग्वारा है, ढोंग है, छलना है, आत्मप्रवंचना है । डा. भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार एकांतता को माधना की प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में प्रमुखता अवश्य थी, परन्तु मार्थक तप यह है कि उमे लोकमेवा के या जनकल्याण के विपरीत वहां कभी नही माना गया । बल्कि यह तो उसके लिए एक तैयारी थी। दूमरी ओर यदि हम महायानी साहित्य का गहराई में अध्ययन करें तो हमें बोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय, लंकावतारसूत्र जैसे अन्यों में भी कही एमो सेवाभावना का समर्थन नही मिलता जो नैतिक जीवन के व्यक्तिगत मूल्यों के विरोध में खड़ी हो। लोक-मंगल का जो आदर्श महायान परम्परा ने प्रस्तुत किया है, वह भी ऐसे किसी लोकहित का समर्थन नहीं करता, जिसके लिए वैयक्तिक नैतिकता को समाप्त कर दिया जाये। इस प्रकार संतांतिक दृष्टि से लोकहित और आत्महित को अवधारणा में हीनयान और महायान में कोई मौलिक विरोध नहीं रह जाता। यद्यपि व्यावहारिक रूप में यह तथ्य सही है कि नहीं १. पेरगाथा, ९४१-९४२ २. बोरदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ६०९

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