Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 37
________________ जैन, बौड और पीता का समापन १. द्रव्य लोकहित, २. भाव लोकहित ओर ३. पारमार्षिक लोकहित । १. ब-लोकहित-यह लोकहित का भौतिक स्तर है। भौतिक उपादानों जैसे भोजन, वस्त्र, आवाम आदि तथा शारीरिक सेवा के द्वारा लोकहित करना लोकहित का भौतिक स्तर है। यहां पर लोकहित के साधन भौतिक होते हैं। द्रव्य-लोकहित एकान्त रूप में आचरणीय नहीं कहा जा सकता। यह अपवादात्मक एवं सापेक्ष नैतिकता का क्षेत्र है । भौतिक स्तर पर म्वहित की उपेक्षा भी नहीं की जा मकती। यहां तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय साधना ही अपेक्षित है। पाश्चात्त्य नैतिक विचारणा के परिष्कृत स्वार्थवाद, बौद्धिक परार्थवाद और सामान्य शुभतावाद का विचारक्षेत्र लोकहित का भौतिक स्वरूप ही है। २. भाव-लोकहित-लोकहित का यह स्तर भौतिक स्तर से ऊपर का है। यहां लोकहित के साधन ज्ञानात्मक या चैतसिक होने हैं। इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थ संघर्ष की मम्भावना अल्पतम होती है। ३. पारमाषिक लोकहित -यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है। यहाँ आत्महित और पर-हित में कोई मंघर्ष या द्वत नहीं रहता। यहाँ पर लोकहित का रूप होता है यथार्थ जीवनदृष्टि के सम्बन्ध मे मार्ग दर्शन करना । बौद्ध दर्शन को लोकहितकारिणी दृष्टि बोट-धर्म में लोक-मंगल की भावना का स्रोत प्रारम्भ मे ही प्रवाहित रहा है। भगवान् बुद्ध की धर्मदेशना भी जैन तीर्थंकरों को धर्म-देशना के ममान लोकमंगल के लिए हो प्रस्फुटित हुई थी। इतिवुतक में बुद्ध कहते हैं, हे भिक्षुओं, दो संकल्प तथागत भगवान् मम्यक् सम्बुद्ध को हुआ करते हैं-१. एकान्त ध्यान का संकल्प और २. प्राणियों के हित का संकल्प। बोधि प्राप्त कर लेने पर बुद्ध ने अद्वितीय समाधिसुख में विहार करने के निश्चय का परित्याग कर लोकहितार्य एवं लोकमंगल के लिए परिचारण करना हो स्वीकार किया। यह उनकी लोकमंगलकारी दृष्टि का सबसे बड़ा प्रमाण है ।" यही नहीं, बुद्ध ने अपने भिक्ष ओं को लोकहित का ही सन्देश दिया और कहा कि हे भिक्षुओं, बहुजनों के हित के लिए, बहजनों के मुख के लिए, लोक की अनुकम्पा के लिए, देव और मनुष्यों के सुख और हित के लिए परिचारण करते रहो। जातक निदान कथा में भी बोधिसत्व को यह कहते हुए दिखाया गया है कि मुन्न शक्तिशाली पुरुष के लिए अकेले तर जाने से क्या लाभ ? में तो सर्वज्ञता प्राप्त कर देवताओं सहित इस सारे लोक को तारूंगा। १-३. अभिधान राजेन्द्र, खण ५, पृ० ६९७ ४. इतिवृत्तक, २।२।९ ५. मनिममनिकाय, ११३६ ६. विनयपिटक, महावग्ग, १।१०।३२ ७. बातकबटुकथा-निदान कया।

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