Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 25
________________ बैन, बोल बोर गीता का समान दर्शन संग्रह, आवेश और कपटाचार के तत्त्व जन्म लेते हैं। अतः यह कहना उचित ही होगा कि इन दर्शनों ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिक विषमताओं को समाप्त करने एवं सामाजिक समत्व की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है। समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता है, जीता है और विकसित होता है, यह भारतीय चिन्तन का महत्वपूर्ण निष्कर्ष है । वस्तुतः आसक्ति या राग तत्त्व की उपस्थिति में सच्ची सार्वभौम सामाजिकता फलित नहीं होती है । सामाजिकता का बाधार राग या विवेक ? सम्भवतः यहाँ यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि राग के अभाव में सामाजिक सम्बन्धों को जोड़ने वाला तन्व क्या होगा? राग के अभाव से तो सारे सामाजिक सम्बन्ध चरमरा कर टूट जायेंगे। रागात्मकता ही तो हमें एक-दूसरे में जोड़ती है। अतः गग सामाजिक-जीवन का एक आवश्यक तत्त्व है। किन्तु मेरी अपनी विनम्र धारणा में जो तत्त्व व्यक्ति को व्यक्ति में या समाज में जोड़ता है, वह राग नहीं, विवेक है। तत्त्वार्थसूत्र में इस बात की चर्चा उपस्थित की गई है कि विभिन्न द्रव्य एक-दूसरे का महयोग किम प्रकार करते हैं। उसमें जहां पुद्गल-द्रव्य को जीव-व्य का उपकारक कहा गया है, वहीं एक जीव को दूसरे जीवों का उपकारक कहा गया है 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्" । चेतन-सत्ता यदि किसी का उपकार या हित कर सकती है, तो वेतन-मत्ता का ही कर सकती है। इस प्रकार पारस्परिक हित-साधन यह जीव का स्वभाव है और यह पारस्परिक हित-साधन की स्वाभाविक वृत्ति ही मनुष्य की मामाजिकता का आधार है । इम स्वाभाविक-वृत्ति के विकास के दो आधार हैं-एक रागात्मक और दूसरा विवेक । रागात्मकता हमें कहीं से जोड़ती हैं, तो कहीं में तोड़ती भी है। इस प्रकार रागात्मकता के आधार पर जब हम किसी को अपना मान है, तो उसके विरोधी के प्रति "पर" का भाव भी आ जाता है । राग द्वेष के साथ ही जीता है । वे ऐसे जुड़वा शिशु हैं, जो एक साथ उत्पन्न होते हैं, एक माथ जीते हैं और एक साथ मरते भी हैं। राग जोड़ता है. तो टेप तोड़ता है। राग के आधार पर जो भी समाज खड़ा होगा, तो उसमें अनिवार्य रूप मे वर्गभेद और वर्णभेद रहेगा ही। मच्ची सामाजिक-चंतना का आधार राग नहीं, विवेक होगा। विवेक के आधार पर दायित्वबोध एवं कर्तव्य-बोध की चेतना जागृत होगो । राग की भाषा अधिकार की भाषा है, जबकि विवेक की भाषा कर्तव्य की भाषा है। जहां केवल अधिकारों की बात होती हैं, वहाँ केवल विकृत सामाजिकता होती है। स्वस्थ सामाजिकता अधिकार का नहीं, कर्तव्य का बोध कराती है और ऐसी सामाजिकता का आधार 'विवेक' होता है. कर्तव्यबोध होता है । जैन-धर्म ऐसी ही सामाजिक चेतना को निर्मित करना चाहता है। जब १. तत्त्वार्थ ५।२१

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