Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 30
________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना हम इन्कार भी नही कर सकते क्योंकि जीवन-मुक्त एक ऐसा व्यक्तित्व है जो सदैव लोक-कल्याण के लिए प्रस्तुत रहता है। जैन दर्शन में तीर्थकर, बोट दर्शन में अहंत एवं बोधिसत्व और वैदिक दर्शन में स्थित-प्रज की जो धारणाएं प्रस्तुत की गई हैं और उनके व्यक्तित्व को जिस रूप में चित्रित किया गया है उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है । वह लोक-मंगल और मानव कल्याण का एक महान आदर्ग माना जा सकता है क्योंकि जनजन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है, मात्र इतना ही नहीं, भारतीय चिन्तन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक-कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्व दिया गा है । बौद्ध दर्शन में बोधिमत्व का और गीता में स्थितप्रज्ञ का जो आदर्श प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना हो अन्तिम लक्ष्य नहीं है। बोधिमन्व तो लोकमंगल के लिये अपने बन्धन ओर द ख की कोई परवाह नहीं करता है । वह कहता है:बहनामकदुःखेन यदि दुःखं विगच्छति । उत्पाद्यमेव तद् दुःखं मध्यन परात्मनो। मुच्चनानेषु मत्त्वषु ये ते प्रमोद्यमागगः । तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारसिकेन किम् ॥' __ यदि एक के कष्ट उठाने से बहतों का दम्य दूर होता हो, तोकाणापूर्वक उनके दुःख दूर करना ही अच्छा है । प्राणियों को दुःखों से मुक्त होता हुआ देखकर जो आनन्द प्राप्त होता है वही क्या कम है, फिर नीग्म मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा की क्या आवश्यकता है ? वैयक्तिक मुक्ति की धारणा की आलोचना करते हुए और जन-जन की मुक्ति के लिए अपने मकल्प को स्पष्ट कग्ने हुए भागवत के सप्तम स्कन्ध में प्रहलाद ने स्पष्ट रूप से कहा था कि प्रायेण देवमुनयः म्वविमक्तिकामाः । मोनं चन्ति विजन न पगथं निष्ठाः ।। नेतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्षुरेकः । है प्रभु अपनी मुक्ति की कामना करने वाले देव और मनि तो अब तक काफी हो चुके हैं. जो जंगल में जाकर मौन माधन किया करते थे। किन्तु उनमें पगर्थ-निष्ठा नहीं थी। मैं तो अकेला इन मब दुःखीजनों को छोड़कर मुक्त होना भी नहीं चाहता।' यह भारतीय दर्शन और माहित्य का मर्वयंप्ट उद्गार है। इमी प्रकार बोधिमत्व भी मदेव ही दोन और दुःखी जनों को दुःख में मुक्त कराने के लिए प्रयन्नगील बने रहने की अभिलाषा करता है और मबको मुक्त कराने के पश्चात् ही मुक्त होना चाहता है। भवंयमुपजीव्योऽहं यावत्सर्वे न निवृताः ।। १. बोविचर्यावतार ८१०५,१०८ । २. वही, ३१२१ ।

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