Book Title: Jain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 26
________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना विवेक हमारी सामाजिक चेतना का आधार बनता है, तो मेरे और तेरे को, अपने और पराये की चेतना समाप्त हो जाती है। सभी आत्मवत् होते हैं । जैन धर्म ने अहिंसा को जो अपने धर्म का आधार माना है, उसका आधार यही आत्मवत् दृष्टि है । ११ सामाजिक जीवन के बाधक तत्त्व अहंकार और कषाय सामाजिक सम्बन्ध में व्यक्ति का अहंकार भी बहुत कम महत्त्वपूर्ण कार्य करता है । शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं, इनके कारण भी गामाजिक-जीवन में विषमता उत्पन्न होती है । शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता - निम्नता के मूल में यही कारण है । वर्तमान में बड़े राष्ट्रों में जो अपने प्रभावक क्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है, उसके मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टि का प्रयत्न है । स्वतन्त्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में होता है । जब व्यक्ति के मन में आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना उद्बुद्ध होती है, तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है, अपहरण करता है। जैन दर्शन अहंकार (मान) प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक परतन्त्रता को समाप्त करता है । दूगरी ओर जैनदर्शन का अहिंमा सिद्धान्त भी सभी प्राणियों के समान अधिकारों को स्वीकार करता है । अधिकारों का हनन भी एक प्रकार की हिंगा है। अतः अहिंगा का सिद्धान्त स्वतन्त्रता के सिद्धान्त के साथ जुड़ा हुआ है । जैन एवं बौद्ध दर्शन एक ओर अहिमा-मिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का पूर्ण समर्थन करते हैं, वही दूसरी ओर गमता के आधार पर वर्गभेद, जातिभेद, एवं ऊंच-नीच की भावना को गमाप्त करते हैं । · सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण है:: -- १. संग्रह (लोभ), २. आवेश (क्रोध), ३. गर्व ( बड़ा मानना) और ४. माया (छिपाना ) । जिन्हें जैन-धर्म में चार कपाय कहा जाता है। ये चारों अलग-अलग रूप में सामाजिक जीवन में विषमता, मंत्र एवं अशान्ति के कारण बनते हैं । १. मग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोपण, अप्रमाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार कर व्यवहार, विश्वासघात आदि विकसित होते हैं । २. आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ आदि होने है । ३. गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा और क्रूर व्यवहार होता है । ८. माना की मनावृत्ति के कारण अविश्वास एवं मैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में जिन्हें चार कवाय कहा जाता है, उन्हीं के कारण मामाजिक जीवन दूषित होता है। जैन दर्शन इन्हीं कषायों के निरोध को अपनी नैतिक-माधना का आधार बनाता है । अतः यह कहना उचित ही होगा कि जैन दर्शन अपने साधना मार्ग के रूप में सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर, सामाजिक समत्व की स्थापना का प्रयत्न करता । यदि हम जैन-धर्म में स्वीकृत पाँच महाव्रतों को देखें, तो स्पष्ट रूप से उनका पूरा सन्दर्भ सामाजिक जीवन है। हिंसा, मृपावचन, चोरी, मैथुन-संवन ( व्यभिचार )

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