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द्वितीय अव्याय . आदर्श महापुरुष
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प्रवर्तक थे। चैत्र कृष्णा अष्टमी को भगवान् का जन्म हुआ। वे काश्यप गोत्र के थे। भगवान् ऋषभ प्रथम राजा, प्रथम श्रमण, प्रथम जिन तथा प्रथम तीर्थकर थे। वे चौरासी लाख-वर्ष तक इस पृथ्वी पर रहे, जिसमे वीस लाख-वर्ष राजकुमार अवस्था मे, त्रेसठ लाखवर्ष राजा के रूप में, एक हजार वर्ष तपस्वी के रूप मे, निन्यानवे हजार वर्प केवली के रूप मे रहे। उनका ८३ लाख-वर्प गृहस्थअवस्था का और १ लाख-वर्प श्रमण अवस्था का काल है।
भगवान् ऋषभ ने अपने ६३ लाख-वर्पो के राज्य-काल मे मानव जाति के हित के लिए अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञान तथा कलाओ का प्रणयन, सम्वर्द्धन एव शिक्षण किया। उन्होने मनुष्यो को लेखन, गणित, ज्योतिप आदि ७२ प्रकार के विज्ञान, नृत्य, गायन, वादन आदि ६४ प्रकार की स्त्रियोपयोगी कलाओ, मिट्टी के वर्तन वनाना, लोहा, सोना, चाँदी आदि धातुओ के काम, रँगाई, बुनाई तथा नाई के काम आदि १०० प्रकार को मानवीय कलाओ तथा कृपि, वाणिज्य आदि व्यवसायो की शिक्षा दी। अन्त मे अपने सौ पुत्रो का राज्याभिपेक कर उन्हे पृथक् पृथक् राज्य अर्पण किया।
भगवान् ऋपभ मनुष्य जाति को ससार मे प्रविष्ट होने की शिक्षा देने के लिए ही नही आए थे, किन्तु ससार मे प्रविष्ट जनो को उमसे निकलने का मार्ग वताने का उत्तरदायित्व भी उन्ही के ऊपर था। अत. गृहस्थजीवन मे जनकल्याण मे व्यस्त भगवान् ऋपभ को लौकान्तिक जाति के देवताओ ने सम्बोधित किया और उन्हे वास्तविक आत्मकल्याण तथा जनकल्याण करने का मार्ग वताया। वे गृहस्थ जीवन से ऊव उठे और चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन सुदर्शना नामक गिविका पर आरोहण करके सिद्धार्थ वन नामक उपवन मे गये, जहाँ अशोक वृक्ष के नीचे उन्होने चार मुट्ठियों से अपने केगो को उखाडा। अढाई दिन का निर्जल उपवास कर
१ तीर्थकरो को जनकल्याण के लिए प्रेरित करने एव उनका निष्क्रमण
तथा तप-कल्याणक मनाने के लिए लौकान्तिक देव, स्वर्गलोक से मनुष्य लोक पर आते हैं।
-उत्तराध्यन, २२, रथनेमीय, पृ० २३५ तथा आचाराग २-१५