Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 245
________________ सप्तम अध्याय : ब्राह्मण तथा श्रमण-संस्कृति [ २२७ करने वाला है, गुरु के निकट रहता, (अन्तेवासी) है, तथा अपने गुरु के के इ' गित, मनोभाव तथा आकार का जानकार है, उसे "विनीत" कहा गया है । ' शिष्य को वाचाल, दुराचारी, क्रोधी, हंसी-मजाक करने वाला कठोर वचन कहने वाला, बिना पूछे उत्तर देने वाला, पूछने पर असत्य उत्तर देने वाला, गुरुजनो से वैर करने वाला नही होना चाहिए | उत्तराध्ययन सूत्र मे शिष्य के लिए निम्तोक्त विधान बतलाया गया है - " गुरुजनो की पीठ के पास अथवा आगे-पीछे नही बैठना चाहिए जिससे अपने पैरो का उनके पैरो से स्पर्श हो । शय्या पर लेटे-लेटे तथा अपनी जगह पर बैठे-बैठे ही उन्हें प्रत्युत्तर न देना चाहिए । गुरुजनी के समक्ष पैर पर पैर चढ़ा कर अथवा घुटने छाती से सटा कर तथा पैर फैला कर कभी नही बैठना चाहिए। यदि आचार्य बुलाएँ तो कभी भी मौन न रहना चाहिए । मुमुक्ष एवं गुरुकृपेच्छ शिष्य को तत्काल ही उनके पास जाकर उपस्थित होना चाहिए। जो आसन गुरु के आसन से ऊँचा न हो तथा जो शब्द न करता हो ऐसे स्थिर आसन पर शिष्य को बैठना चाहिए । आचार्य का कर्त्तव्य है कि ऐसे विनयी शिष्य को सूत्र, वचन और उनका भावार्थ, उसकी योग्यता के अनुसार समझाए । अ I उत्तराध्ययन सूत्र मे गुरु तथा शिष्य के संबन्ध पर भी प्रकाश डाला गया है "जैसे अच्छा घोडा चलाने मे सारथी को आनन्द आता है, वैसे चतुर साधक को विद्यादान करने में गुरु को आनन्द प्राप्त होता है । जिस तरह अड़ियल टट्टू को चलाते चलाते सारथी थक जाता है, वैसे ही मूर्ख शिष्य को शिक्षण देते देते गुरु भी हतोत्साह हो जाता है । पापदृष्टि वाला शिष्य कल्याणकारी विद्या प्राप्त करते हुए भी गुरु की चपतो और व भर्त्सनाओं को वध तथा आक्रोश (गाली) मानता है । साधुपुरुष तो यह समझ कर कि गुरु मुझ को अपना पुत्र, लघुभ्राता, अथवा स्वजन के समान मान कर ऐसा कर रहे है, गुरु की शिक्षा ( दण्ड ) को अपने लिए कल्याणकारी मानता है, किन्तु पापदृष्टि वाला शिष्य १. उत्तराध्ययन, १, २ । २ . वही ३. वही १, ४, ६, १३, १४, १७, १, १८-२३ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275