Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 260
________________ २४२ ] जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास गृहस्थाश्रम के घनघोर श्रम से बचने के लिए कुछ लोग उसका परित्याग करते थे; तभी तो उनके सम्बन्धी उनसे कहते थे कि, "तुम से हम सरल काम करायेगे, तुम्हारा ऋण भी हम वॉट लेगे, तुम घर लौट चलो। "ऐसे आश्वासन पा कर कभी-कभी लोग घर लौट जाते थे। “संसार के सभी प्राणी आतुर है, यह देख कर घर से निकल ही पड़ना चाहिए। इस प्रकार के विचार प्रायः जैनसाधक के हुआ करते थे। इस संस्कृति के विचारको को मानवजीवन नश्वर, घृणास्पद और चंचल प्रतीत होता था, अत इस जीवन को सुधारने के लिए उनके समक्ष प्रव्रज्या ही एकमात्र उपाय था। उन्हे स्वभावत: गृहस्थाश्रम के कामभोगो मे अशुद्धि और अपवित्रता दिखाई पडती थी । यह बात प्रत्यक्ष है कि "संसार का समस्त ऐश्वर्य मरने के साथ ही समाप्त हो जाता है, पुत्रादि सब कुछ नश्वर है ही, फिर किसके लिए गृहस्थाश्रम में निवास किया जाए ?"3 व्यक्तित्व के विकास के लिए बौद्ध-संस्कृति मे वनो का अतिशय महत्व रहा है। इस सस्कृति मे अरण्य को रमणीय माना गया है और कहा गया है कि कामनाओ के चक्कर मे न पड़ने वाले विरागी पुरुष इन्ही अरण्यो मे रमण करते है।४ ___ गौतमबुद्ध ने वन की उपयोगिता प्रमाणित करते हुए कहा था कि, 'जव तक भिक्ष, वन के शयनासन का उपभोग करेगे, उनकी वृद्धि होगी। उन्होने नियम बनाया था कि भिक्ष एकासन और एक शय्या वाला हो कर अकेला विचरण करे, आलस्य न करे, अपना दमन करे और वन मे आनन्दपूर्वक रहे । १ वही, १, ३, २ । २. वही, ३, १, १०६ । ३. ज्ञाताधर्म कथा, १, १ । ४ धम्मपद, ७, १० । ५ महापरिनिव्वानसुत्त, १, ६ । ६. धम्मपद, परिण वग्गो, १६ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275