Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 267
________________ अष्टम अध्याय : उपसंहार [ २४६ पर रख दिया । महावीर से स्पष्ट कहा था कि "हिसा से तो हिंसा को उत्तेजना मिलती है। लोगो मे परस्पर शत्रुता वढती है; और सुख की कोई आशा नही । सुख चाहते हो तो सब जीवो से मैत्री करो, प्रेम करो सब दुखी जीवो पर करुणा रखो । ईश्वर में और देवो मे यह सामर्थ्य नही कि वे तुम्हे सुख या दुःख दे सके । तुम्हारे कर्म ही तुम्हे सुखी और दुःखी करते है। अच्छा फल पाओ। बुरा कर्म करके बुरा परिणाम भोगने के लिए तैयार रहो।" जैन-परम्परा में विकास की दो श्रेणियाँ और उनका परस्पर समन्वय-जैन परम्परा मे मानव के विकास की दो श्रोणियाँ है१ गृहस्यजीवन मे रहते हुए विकास करने वाला गृहस्थ उपासक और २. गृहस्यवास को छोड़ कर आत्मसाधना के पथ पर चलने वाला अनगार श्रमण । इन दोनो वर्गों का आदर्श एक समान है किन्तु दोनो के विकास करने की गति मे जितना तारतम्य है, उतना ही तारतम्य उन दोनों साधको के साधनो मे भी है । अहिसा, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य और अपरि ग्रह ये विकास के साधन है। उनके पालन मे गृहस्थसाधक के लिए मर्यादा रखी गई है। क्योकि उसे गृहस्थधर्म निभाते हुए साथ-साथ आत्मधर्म मे भी आगे बढना होता है । इसी कारण उसके समस्त व्रतो मे उतनी ही मर्यादा रखी गई है, जितनी उसके जीवन मे सुसाध्य हो सके । किन्तु श्रमण-साधको को तो विकास के उन साधनो का सम्पूर्ण पालन करना होता है । इस कारण गृहस्थ के व्रतो को अगुव्रत और श्रमण के व्रतो को महाव्रत कहते है।' ___ साधु के लिए श्रमण तथा गृहस्थ के लिए श्रमणोपासक शब्द हमें विकास की दोनो श्रोणियो मे परस्पर समन्वय की ओर संकेत करते है। इसी प्रकार आगार-चारित्र और अनगार-चरित्र, आगार-सामायिक और अनगार-सामायिक आदि भी हमें स्पष्टरूप से यह बताते है कि महावीर १. समवायाग, ५। २. स्थानाग, ७२। ३. वही ८४।

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