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जैन-अगशास्त्र के अनुमार मानव-व्यक्तित्व का विकास के लिए वह उद्यम करने लगता है तो कर्मबंधनों का क्षय करके वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।"
मनुप्यजीवन के दो रूप हैं, एक भीतर की ओर और दूसरा बाहर की ओर । जो जीवन बाहर की और झाँकता रहता है, संसार की मोहमाया मे उलझा रहता है, अपने आत्मतत्त्व को भूल कर केवल देह का पुजारी वना रहता है, वह मनुष्य-भव मे मनुप्यता के दर्शन नहीं कर सकता । शास्त्रकार इस प्रकार के भौतिक विचार रखने वाले दहात्मवादी को वहिरात्मा या मिथ्यावृष्टि कहते है। मिथ्यासंकल्प, मनुष्य को अपने वास्तविक अन्तरजगत् की ओर अर्थात चैतन्य की ओर नही झाकने देते और सदा वाह्य जगत् के भौतिक विलास की ओर ही उल झाये रहते है । केवल वाह्यजगत् का द्रप्टा मनुष्य आपतिमात्र से मनुष्य है, परन्तु उसमे मोक्षसाधक मनुण्यत्व नहीं। ___मनुष्य-जीवन का दूसरा रूप भीतर झाकना है। भीतर की ओर झाँकने का तात्पर्य यह है कि मनुप्य, देह और आत्मा को पृथक-पृथक वस्तु समझता है, जड़जगत् की अपेक्षा चैतन्य को अधिक महत्व देता है और भोग-विलास की ओर आंखे बन्द करके अन्तर मे रहने वाले आत्मतत्त्व को देखने का प्रयत्न करता है। शास्त्र में उक्त जीवन को अन्तरात्मा या सम्यगदृष्टि कहा गया है । मनुष्य के जीवन मे मनुष्यत्व की भूमिका यही से प्रारम्भ होती है। अधोमुखी जीवन को ऊर्ध्वमुखी वनाने वाला सम्यगदर्शन के अतिरिक्त और कौन है ? यही वह भूमिका है, जहाँ अनादिकाल के अज्ञानांधकार से आच्छन्न जीवन मे सर्वप्रथम सत्य की सुनहरी किरण प्रस्फुरित होती है । १. श्रमण भगवान महावीर, पृ० ६५, ६७ । २ "आत्मविकास के १४ गुणस्थानो मे सबसे प्रथम गुणस्थान मिध्यादृष्टि
है।" समवायाग, १४ । ३. "मनुष्य को ये गर वातें दुर्लभ हैं, १. मनुष्यत्व, २. श्रु ति=धमंश्रवण,
३. श्रद्धा ४. संयमधारण की शक्ति ।" उत्तराव्ययन ३, १ । ४ बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग मे प्रथम मार्ग सम्यगदृष्टि है, जिसका तात्पर्य
है-कायिक, वाचिक, मानसिक, भले बुरे कर्मों का ठीक-ठीक ज्ञान" वौद्धदर्शन, पृ० २५ ।