Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 259
________________ सप्तम अध्याय : ब्राह्मण तथा श्रमण-संस्कृति [ २४१ सन्यास आश्रम मे मनुष्य सर्वतन्त्र-स्वतंत्र हो कर महान् विचारक बनने का अवसर पाता था। सन्यास का विधान मानव को किसी एक स्थान, कुटुम्ब, ग्राम. देश, कुल, धर्म, व्यवसाय तथा पद को सकुचित सीमा से निकाल कर विशाल आध्यात्मिक क्षेत्र में लाने के लिए किया गया है ! वानप्रस्थ-आश्रम के मनन, चिन्तन और तप साधारणतः ब्रह्मनान के साधन है। ब्रह्मज्ञान हो जाने पर इन साधनो की आवश्यकता नहीं रह जाती । साधना की अवधि समाप्त हो जाने पर मुनि की संन्यास अवस्था होती है । ऐसे ब्रह्मनानियो का उल्लेख उपनिषद्-साहित्य में मिलता है; जो सभवत· ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमो मे अपने व्यक्तित्व का विकास करके बह्मसंस्थ हो चुके थे। बौद्ध तया जैन संस्कृतिगे मे यद्यपि गृहस्थ के लिए व्यक्तित्व विकास की योजना बनाई गई, पर गृहस्थाश्रम को कभी आवश्यक नही माना गया। दोनो संस्कृतियों के ग्रन्यो में ग्रहस्थाश्रम के दोपों की गणना प्राय. मिलती है । गौतम ने गृहस्थाश्रम का विवेचन करते हुए बताया है कि, "पुत्र और पशु मे आसक्त मन वाले गृहस्य को मृत्यु उसी प्रकार ले जाती है, जैसे सोये हुए गाव को बाढ । ऐसी परिस्थितियो मे पिता, पुत्र, भाई, वन्धु कोई नहीं बचा सकते । जब सत्य इस प्रकार है तो शीलवान पंडित यथाशीघ्र निर्वाण की ओर ले जाने वाले मार्ग को अपने लिए खोज निकाले । दार्शनिक तत्वो के आधार पर भी गौतम ने वैराग्य का कारण बतलाते हुए कहा है कि, "सभी संस्कार (वनी हुई वस्तुएं) अनित्य और दुखमय है। सभी धर्म (पदार्थ) अनात्म हे। जव इन बातो को कोई व्यक्ति अपनी प्रज्ञा से देखता है तो उसे संसार से विराग होता है, यही विशुद्धि का मार्ग है । जैन-संस्कृति के अनुसार यदि कोई व्यक्ति चराचर संपत्ति रखता है या उसके रखने की सम्मति देता है तो वह कभी मुक्त नही हो सकता। १. छान्दोग्य उपनिषद्, २, २३, १, तथा मनुस्मृति, ६, ८१ । २ धम्मपद, २०, १५, १७ । ३. वही, मग्गवग्ग, ५-७ । ४. सूत्रकृताग, १, १, १, २ ।

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