Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 248
________________ २३० ] जैन-अगगाग्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास जन-संस्कृति की आचार्य-परम्पग तीर्थ करो मे आरम्भ होती है। तीर्थ कर प्राय अनगार होते थे । अन्तिम तीर्थकर महावीर का निग्रन्थ होना प्रसिद्ध है। ऐसे तीर्थ करो की पाठशाला का भवनो मे होना संभव नहीं था। उनके शिप्य-संघ आचार्यों के साथ ही देशदेशान्तर में पर्यटन करते थे। महावीर के जो ११ गणधर (गिप्य) थे, वे भव आचार्य थे। उनमे इन्द्रभूति, अग्निभूति. वायुभूति, आर्यव्यक्त तथा सुधर्मा के प्रत्येक के ५०० शिष्य थे; मंडितपुत्र तथा मौर्यपुत्र के प्रत्येक के ३५० गिप्य थे। और अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य तथा प्रभास के प्रत्येक के ३०० गिज्य थे। ये भमण करते हुए संयोगवश महावीर से मिले और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर अपने शिष्यो सहित उनके संघ मे सम्मिलित हो गए। शन -शनैः जैनमुनियो तथा आचार्यों के लिए भी गुफा-मन्दिर तथा तीर्थक्षेत्र के मन्दिर आदि बनने लगे। इसके वाट राजधानियाँ, तीर्थस्यान, आश्रम तया मन्दिर शिक्षा के केन्द्र बने । राजा तथा जमींदार लोग विद्या के पोपक तथा संरक्षक थे । समृद्ध राज्यो की अनेक राजधानियां बड़े-बड़े विद्या-केन्द्रो के रूप में परिणत हुई। जैनागमो मे वर्णन है कि बनारस विद्या का केन्द्र था । शखपुर का राजकुमार अगडदत्त वहाँ विद्याध्ययन के लिए गया था। वह अपने आचार्य के आश्रम में रहा और अपना अध्ययन समाप्त कर घर लौटा । सावत्थी (थावस्ती) एक अन्य विद्या का केन्द्र था। पाटलिपुत्र भी विद्या का केन्द्र था । "अज्जरक्खिय" जव अपने नगर दशपुर मे अपना अध्ययन न कर सका तो वह उच्च शिक्षा के लिए पाटलिपुत्र गया । 'प्रतिष्ठान, दक्षिण में विद्या का केन्द्र था। ____ साधुओ के निवासस्थान (वसति) तथा उपाश्रयो मे भी विद्याध्ययन हुआ करता था। ऐसे स्थानो पर वे ही साधु अध्यापन के अधिकारी होते थे, जो उपाध्याय के समीप रहकर आगम का पूर्णरूप से अभ्यास कर चुके होते थे । बौद्ध-शिक्षण, विहारो में होता था। ये विहार नगरों के समीप ऊँचे भवनों के रूप मे वनते थे । तत्कालीन अनेक राजाओ और धनी लोगो १. कल्पमूत्र, "लिस्ट आफ स्थविराज, श्रमण भगवान महावीर, पृ० २११ २२० । २. ला० इन ए० इ०, पृ० १७३-१७४ ।

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