Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 253
________________ सप्तम अध्याय ब्राह्मण तथा श्रमण-सस्कृति [ २३५ जैन शिक्षण की वैज्ञानिक शैली के पॉच अंग थे-१. वाचना (पढना), २. पृच्छना (पूछना), ३ अनुप्रक्षा (पढ़े हुए विषय का मनन करना), ४. आम्नाय-परियट्टणा (कण्ठस्थ करना और आवृत्ति करना) तथा । ५. धर्मोपदेश ।' वौद्ध-शिक्षण-पद्धति का आदर्श स्वयं गौतमबुद्ध ने प्रतिष्ठित किया था । गौतम ने अपनी शिक्षण-पद्धति का विवेचन करते हुए स्वयं कहा है-"जिस प्रकार समुद्र की गहराई शनैः-शनैः बढती है, सहसा नही, हे भिक्षुओ, उसी प्रकार धर्म की शिक्षा शनं -शन होनी चाहिए । पदपद चल कर ही अर्हत् बना जा सकता है ।२ गौतम के शिक्षण मे प्रासंगिक उपमा, दृष्टान्त, उदाहरण और कथा का समावेश होता था। ___ अनुशासन-वैदिक युग मे आचार्य विद्यार्थी को प्रथम दिन ही आदेश देता था कि, "अपना काम स्वय करो, कर्मण्यता ही शक्ति है, अग्नि मे समिधा डालो, अपने मन को अग्नि के समान ओजस्विता से समृद्ध करो, सोओ मत ।"3 जैनशिक्षण में भिक्षुओ के लिए शारीरिक कष्ट को अतिशय महत्व दिया गया है । व्रतभंग के प्रसंग पर साधु को मरना ही श्रेयस्कर बताया गया है। जनशिक्षण में शरीर की बाह्यशुद्धि को केवल व्यर्थ ही नहीं, अपितु अनर्थकर बताया गया है। शरीर का सस्कार करने वाले श्रमण "शरीरवकुश" (शिथिलाचारी) कहलाते थे। वैदिक पद्धति के अग्निहोत्र आदि की उपेक्षा भी जैनसंस्कृति मे की गई है। परिवर्ती युग में विद्यार्थियो के लिए आचार्य की आज्ञा का पालन करना, डाट पड़ने पर भी चुपचाप सह लेना, भिक्षा मे स्वादिष्ट भोजन न लेना आदि नियम बनाये गये। विद्यार्थी सूर्योदय से पहिले जाग कर अपनी वस्तुओ का निरीक्षण करते थे और गुरुजनो का अभिवादन करते थे। दिन के तीसरे पहर मे वे भिक्षा मांगते थे, रात्रि के तीसरे पहर मे वे १. स्थानाग, ४६५ । २. चुल्लवग्ग, ६, १,४। ३ शतपथब्राह्मण, ११, ५, ४, ५। ४ स्थानाग ४४५ तथा १५८ । सूत्रकृताग, १,७।

Loading...

Page Navigation
1 ... 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275