Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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पंचम अध्याय · उपासक-जीवन
[ १६७
भयंकर पाप बन जाता है। प्रतिदिन बढते हुए परिग्रह को बढ़े हुए नख की उपमा दी गई है। बढ़े हुए नख को काटने की तरह परिमित परिग्रह का नित्यप्रति यत्किचित् दान देने का विधान है। दान परिग्रह का
प्रायश्चित्त है। गृहस्थ के घर का द्वार जनसेवा के लिए खुला रहना __ चाहिए, विशेषकर त्यागियो, व्रतियो एवं श्रमणो के लिए। यदि वे लोग
किसी उपासक के घर पधारे तो उपासक का कर्तव्य है कि वह उनको योग्य भक्ति-भाव से आहार-पानी दे । स्थानागसूत्र मे श्रमणोपासना से परम्परा से मुक्ति की प्राप्ति वताई गई है। "श्रमरणसेवा से शास्त्र का उपदेश सुनने को मिलता है। शास्त्रोपदेश का फल आत्मज्ञान है । आत्मजान से विज्ञान (विशिष्टनान), विज्ञान से प्रत्याख्यान (वस्तुओ के त्याग की इच्छा), प्रत्याख्यान से संयम, संयम से अनाश्रव (कमा का आगमन रुकना) तथा अनाव से तपक्रिया तया अंत मे निर्वाण की प्राप्ति होती है।"१ इस व्रत के पाँच अतिचार है
१ सचित्तनिक्खेवणया (सचित्तनिक्षेप)—साधु को देय वस्तु सचेतन पत्र, पुप्प आदि पर रख देना । __ २ सचित्तपिहणया (सचित्तपिधान)—साधु को देय वस्तु सचेतन पत्र-पुप्प आदि से ढंक देना ।
३ कालाइक्कमे (कालातिक्रम)—साधु के भिक्षार्थ भोजन-काल का उल्लंघन कर देना।
४. परव्ववएसे (परव्यपदेश)---भिक्षा के लिए अपने घर साधु के आने पर अपनी वस्तु को किसी अन्य व्यक्ति की, बता कर साधु को टरका देना कि यह भोज्य पदार्थ अमुक व्यक्ति का है ।
५ मच्छरियाए (मात्सर्य)-अपने यहाँ किसी कारण साधु द्वारा आहार न लेने पर या किसी अन्य गृहस्थ के यहाँ से लेने पर उससे ईर्ष्या करना ।
१. स्थानाग ६६, १६० । २ उपासकदशाग, (अभयदेववृत्ति) १, ६, पृ० १६, २० ।

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