Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 217
________________ षष्ठ अध्याय श्रमण-जीवन [ १६९ कर देना विवेक है। एकाग्रतापूर्वक शरीर और वचन के व्यापारो को छोड़ देना, व्युत्त्सर्ग है। अनशनादि वाह्यतप करना तप है। ___ विनय-ज्ञानादिसद्गुणो मे वहुमान रखना, विनय है । इसके सात भेद है १-१ ज्ञानविनय, २ दर्शनविनय, ३ चारित्रविनय ४ मनोविनय, ५ वचनविनय, ६. कायविनय, ७ उपचारविनय । ज्ञान प्राप्त करना, ज्ञानविनय है, तत्व की यथार्थप्रतीतिरूप सम्यगदर्शन से विचलित न होना, दर्शनविनय है । सामायिकादि चारित्र मे चित्त का समाधान रखना चारित्रविनय है। उपयुक्त तीनो प्रकार के विनयो को मन वचन तथा कायपूर्वक विनय करना; क्रमश मनोविनय, वचनविनय तथा कायविनय है । अपने से ज्ञान-दर्शन-चारित्र मे आगे वढे हुए का आदर करना उपचारविनय है। वैयावृत्य-योग्य साधनो को जुटा कर अथवा अपने आपको काम मे लगा कर सेव्यपुरुपो की सेवाशुश्रूषा करना वैगवृत्य है। इसके १० भेद है-१ आचार्यवैयावृत्य, २ उपाध्यायवैयावृत्य, ३ स्थविरवैयावृत्व ४ तपस्वीयावृत्य, ५ ग्लानवैयावृत्य, ६ शैक्षवैयावृत्य, ७ कुलवैयावृत्य, ८.गणवैयावृत्य, ६ सघवैयावृत्य, १० सार्मिकवैयावृत्य । "श्रमण-जीवन के भेद" नामक प्रकरण मे कहे हुए आचार्य आदि श्रमणो एव कुल, गण, सघ, व साधर्मी की सेवाशुश्र षा करना क्रमश. आचार्यवैयावृत्य आदि है। स्वाध्याय-ज्ञानप्राप्ति के लिए आगम आदि का विविध प्रकार से अध्ययन करना स्वाध्याय है। इसके पाँच भेद है-१ वाचना, २ पृच्छना, ३ परिवर्तना, ४ अनुप्रक्षा, ५ धर्मकथा।। सूत्र या ग्रन्थ का अर्थसहित पाठ लेना वाचना है। शका दूर करने के लिए अथवा विशेष निर्णय के लिए पूछना पृच्छना है । पढे हुए पाठ की उच्चारणशुद्धिपूर्वक आवृत्ति करना परिवर्तना है । आगम-पाठ या उसके अर्थ पर विशेप चितन करना अनुप्रेक्षा है। जानी हुई वस्तु का रहस्य समझाना, व्याख्या करना या धर्मोपदेश देना धर्मकथा है । १. स्थानाग, ५८५ । २ वही, ७१२ । ३. स्थानाग, ४६५ ।

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