Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 225
________________ षष्ठ अध्याय : श्रमण जीवन [ २०७ विश्रामगृहो तथा मठो मे, जहाँ वार-बार साधु आते जाते रहते है, नही ठहरना चाहिए । १ भिक्षु को चाहिए कि वह अपने निवास के लिए जीव-जन्तु से रहित, एकान्त, तथा निर्वाध स्थान की गवेपणा करे । मलमूत्रप्रक्षेप- जीवजन्तु से युक्त, गीली, धूल वाली, कच्ची मिट्टी वाली जमीन पर तथा सचित्त शिला, ढेले, एवं कीडे वाली लकड़ी पर मलमूत्र नहीं डालना चाहिए | जिस जमीन पर गृहस्थ ने मूग उड़द, तिल आदि वोए हो, वहाँ भी भिक्षु को मलमूत्र - परिष्ठापन नही करना चाहिए । आराम, उद्यान, वन, उपवन, देवमंदिर, सभागृह आदि मलमूत्र के लिए निपिद्ध स्थान है । भिक्षु को खुले बाड़े मे या एकान्त जगह में जहाँ कोई देख न सके और जो स्थान जीवजन्तु से रहित हो, वहाँ किसी पात्र मे मलमूत्र करके उसे खुले बाडे अथवा जली भूमि पर या किसी निर्जीव स्थान मे सावधानी से डाल देना चाहिए । शय्या - भिक्षु, शय्यासंस्तारक (बिछौने) के सम्बन्ध मे निम्नोक्त चार नियमो को भलीभांति जान कर इनमे से किसी एक को स्वीकार करे 3 १ भिक्षु घास, तिनका, सूखी दूब, पराल, वॉस की खपचियाँ, पीपल आदि के पट्टे (फलक) मे से किसी एक का निश्चय करके बिछाने के लिए स्वयं याचना करे अथवा दूसरे दे तो उसे स्वीकार करले । २ ऊपर बताई गई वस्तुओं में से किसी एक का निश्चय करके, भिक्षु उमे गृहस्थ के घर देख कर विछाने के लिए मांगे अथवा दूसरो के देने पर ले | ३ भिक्षु जिसके मकान में ठहरे; उसके यहाँ उपयुक्त कोई वस्तु विछाने को हो तो वह माग ले अथवा गृहस्थ दे तो ले ले; अन्यथा उकडू या पल्हथी आदि मार कर बैठा रहे और सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत कर दे । ३ वही २, २, ७७, पृ० ८७ १ आचाराग, २, १०, १६३ - १६९, ( हि०) पृ० ११८, ११९ । २ वही, २, २, १००-१०२, पृ० १०, ६१

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