Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 233
________________ सप्तम अध्याय : बाह्यण तथा श्रमण-संस्कृति [ २१५ एवं सूक्तो के द्वारा जो नानाविध स्तुतियाँ और प्रार्थनाएं की जाती है; वे ब्रह्मन कहलाती है। इसी तरह वैदिक-मत्रो द्वारा साध्य यजयागादि कर्म भी ब्रह्मन् कहलाता है । वैदिक-मंत्रो के सूत्रो का पाठ करने वाला पुरोहित वर्ग और यजयागादि कराने वाला पुरोहितवर्ग ही ब्राह्मण है। ब्राह्मण-संस्कृति का मूल आधार वेद है। अत. यह वैदिक-संस्कृति के नाम से भी कही जाती है । वेद के प्रधानतया दो विभाग है--सहिता और ब्राह्मण । मंत्रो के समुदायो का नाम संहिता है। ब्राह्मण-ग्रन्यों में इन्ही मंत्रो को विस्तृत व्याख्या है। ब्राह्मण के तीन खड है-१. ब्राह्मण २ आरण्यक, और ३ उपनिषद् । अत वेदों से चार प्रकार के ग्रन्थो का बोध होता है-१ वेद २ ब्राह्मण, ३ आरण्यक तथा ४. उपनिषद् ।' श्रमण-संस्कृति श्रमण-संस्कृति का आधारभूत शब्द "समण" है । समण शब्द प्राकृत का है, उसके संस्कृत-रूप तीन होते है-१ श्रमण, २. समन, ३. शमन । श्रमण संस्कृति का रहस्य इन्ही तीनो शब्दों मे अन्तहित है। श्रमण शब्द "श्रम" धातु से बना है, जिसका अर्थ है--तप और श्रम करना। "समन" का अर्थ है-समता का भाव, तथा "शमन" का अर्थ है-अपनी वृत्तियो को शान्त रखना । महात्मा बुद्ध ने "श्रमण" का अर्थ किया है, "पापो को शमन करने वाला"३ | इस प्रकार तप व श्रम, समानता तथा शान्ति ये तीन तत्व श्रमण-सस्कृति की आधारशिला है। अभी जैनधर्म के नाम से जो आचार-विचार पहिचाना जाता है। वह भगवान् पार्श्वनाथ के समय में विशेषकर महावीर के समय में निग्गंठधम्म (निम्र थधर्म) नाम से पहिचाना जाता था, परन्तु वह श्रमण-धर्म भी कहलाता था। अन्तर केवल इतना है कि एकमात्र जनधर्म ही श्रमणधर्म नही है। श्रमणधर्म की और भी अनेक शाखाएँ भूत १ संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ० १८ । २ उत्तराध्ययन, २५, ३२ । ३. धम्मपद, धम्मट्ठवग्ग, ६, ६० ।

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