Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 236
________________ २१८ ] जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास मे कहना हो तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि ब्राह्मण-सस्कृति वैषम्य पर प्रतिष्ठित है, जब कि श्रमण-परम्परा साम्य पर प्रतिष्ठित है। यह वैषम्य और साम्य तीन वातो मे देखा जा सकता है १-समाज-विषयक २, साध्य-विषयक, ३ प्राणिजगत् के प्रति दृष्टि-विषयक। समाजविषयक वैषम्य का अर्थ है-समाजरचना तथा धर्माधिकार मे ब्राह्मणं-वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व और इतर वर्णो का ब्राह्मण की अपेक्षा कनिष्ठत्व । ऋगवेद मे कहा है कि ब्राह्मण "ब्रह्मा" के मुख से पैदा हुए जव कि शूद्र पैरो से । यही कारण है कि ब्राह्मण तथा शूद्र मे उतना ही भेद व्यवहार मे लाया गया, जितना भेद मुख और पैर मे है । अन्य वर्णो के साथ भी आनुपातिक ढंग से विषमता का व्यवहार किया गया। ब्राह्मण-धर्म का वास्तविक साध्य है-"अभ्युदय", अर्थात् ऐहिकसमृद्धि, राज्य, पशु, पुत्रादि के नानाविध लाभ तथा इन्द्रपद, स्वर्गीयसुख आदि नानाविध पारलौकिक लाभ । अभ्युदय का साधन मुख्यतया यज्ञधर्म है । इस धर्म मे पशु-पक्षी की बलि अनिवार्य मानी गई है, और कहा गया है कि वेदविहित हिसा धर्म का हेतु है । इस विधान मे बलि किये जाने वाले निरपराध पशु-पक्षी आदि के प्रति स्पष्टतया आत्मसाम्य के अभाव की अर्थात् आत्म-वैषम्य की दृष्टि है। __ श्रमणधर्म समाज मे किसी भी वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व न मानकर गुणकृत तथा कर्मकृत श्रेष्ठत्व व कनिष्ठत्व मानता है।४ इसलिए वह समाजरचना तथा धर्माधिकार मे जन्मसिद्ध वर्णभेद का आदर न करके गुणकर्म के आधार पर ही सामाजिक व्यवस्था करता है । अतएव उसकी दृष्टि मे सद्गुणी शूद्र भी दुगुणी ब्राह्मण आदि से श्रेष्ठ है और धार्मिक क्षेत्र मे योग्यता के आधार पर प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) समानरूप से उच्चपद का अधिकारी है । ५ १ ऋगवेद, १०, १०, १२ । २. "अग्नीपोमीय पशुमालभेत" सांख्यकारिका टीका, ११, पृ० ५। ३ "कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा गूद्र होते है।" उत्तराध्ययन, २५, ३ । ४. "चाण्डालकुलोत्पन्त, किन्तु उत्तमगुणी हरिकेशवल नामक एक जितेन्द्रिय भिक्षु हो गये है।" उत्तराध्ययन, १२, १,

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